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7.2 मन का महत्त्त्व
जैनआचारदर्शन के अनुसार, व्यक्ति के जीवन - व्यवहार का नियामक बिन्दु मन ही है। यह एक अद्भुत शक्ति - पुंज है। यही सांसारिक सफलताओं और आध्यात्मिक विभूतियों का प्रदाता भी है। पाप-पुण्य, बन्ध-मोक्ष एवं स्वर्ग-नरक आदि की अवधारणाएँ मूलतः इसी पर आधारित यही बाहरी दुनिया का द्वार भी है और यही आत्मिक - विकास की सीढ़ी भी है । चिरकाल से यही मानव के समग्र क्रियाकलापों का नियंत्रक रहा है। इसके महत्त्व को समझना ही जीवन - प्रबन्धन की पहली सीढ़ी है। 16
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कहा गया है मन को साधना ही सम्यक् साधना है । मन न सधे तो साधना में बाधा ही बाधा है। आशय यह है कि मन वह साधन है, जिसका सम्यक् प्रयोग किया जाए, तो वह साधना बन जाता है, किन्तु यदि इसका सम्यक् उपयोग न किया जाए, तो यही मनुष्य के लिए महाविपदारुप भी सिद्ध हो सकता है। जैनदर्शन सहित भारतीय संस्कृति में यह सर्वमान्य तथ्य रहा है कि मन ही बन्धन और मोक्ष दोनों का प्रबलतम कारण है । 17
मन बन्धन का कितना भयानक कारण है, यह बात जैनाचार्यों ने कर्म - सिद्धान्त में स्पष्ट रूप से बताई है। कर्मग्रन्थ में कहा गया है जो केवल काया के द्वारा प्रवृत्ति करते हैं, ऐसे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों को 'मोहनीय' नामक कर्म का अधिकतम बन्धन एक सागर ( समय का मापविशेष) जितना ही होता है । यही बन्धन वचन और काया दोनों से प्रवृत्ति करने वाले द्वीन्द्रिय जीवों को पच्चीस सागर जितना, त्रीन्द्रिय जीवों को पचास सागर जितना, चतुरिन्द्रिय जीवों को सौ सागर जितना तथा मनरहित पंचेन्द्रिय जीवों को एक हजार सागर जितना होता है। यदि मनुष्यादि मनसहित पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति देखें, तो यह बन्धन लाख और करोड़ सागर से भी कई गुणा अधिक हो जाता है। मन से युक्त प्राणियों को मोहनीय कर्म का अधिकतम बन्धन सत्तर कोड़ा - कोड़ी (70 करोड़ x 1 करोड़) सागर प्रमाण होता है।48 जैनाचार्यों के अनुसार, इतना अधिक कर्म - बन्धन करने वाला जीव अनन्त जन्मों तक संसार में भटकता रहता है, दुःख और सन्ताप पाता रहता है। इससे मन की विध्वंसात्मक-शक्ति (Destructive Power) का अनुमान लगाया जा सकता है। डॉ. सागरमल जैन ने इसीलिए बन्धन की अपेक्षा से मन को पौराणिक ब्रह्मास्त्र की उपमा दी है। 19
मन यदि बन्धन का भयानक हेतु है, तो मुक्ति का अनिवार्य साधन भी है। जैनदर्शन की यह मान्यता है कि मोक्ष–मार्ग की साधना का प्रारम्भ ही सम्यक् दृष्टिकोण के विकास के साथ होता है और इस दृष्टिकोण को प्राप्त करने की पात्रता केवल मनसहित जीवों में ही होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, मन का सम्यक् प्रबन्धन ( संयमन) करने से मानसिक एकाग्रता का विकास होता है, जिसके बल पर विवेक की प्राप्ति होती है और यह विवेक ही गलत दृष्टिकोण के परिहार तथा सम्यक् दृष्टिकोण के प्रकटीकरण का आधार होता है। 50 अन्यत्र भी कहा गया है एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक मनरहित जीवों के लिए समीचीन दृष्टि का विकास कर पाना असम्भव है।
1 इस प्रकार, मन मुक्तिमार्ग
अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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