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अशुद्ध प्रयोग शुद्ध प्रयोग(मित भाषा)
स्पष्टीकरण जैसे कि मान लो.... 'जैसे' या 'मान' लो.... दोनों में से किसी एक का प्रयोग पर्याप्त है। वापस से... वापस...
'से' व्यर्थ है। आँखों से आँसू बह निकले ... आँसू बह निकले आँसू सदैव आँखों से ही निकलते हैं। last corner
'कार्नर' हमेशा 'लास्ट' में ही होता है। आखिरी end
आखिरी या end दोनों का अर्थ एक ही है।
corner
उत्तराध्ययन में इसीलिए संक्षेप में हित शिक्षा दी गई है कि 'बहुयं मा य आलवे' अर्थात् जितनी आवश्यकता हो उतना ही बोलना चाहिए, अधिक नहीं।'
मितभाषिता के लिए सबसे बड़ी बाधा है – विकथा। अक्सर जब हम किसी से मिलते हैं, तो कुछ औपचारिक बातें करने के पश्चात् किसी अनावश्यक विषय की चर्चा छेड़ देते हैं। फिर तो पता ही नहीं चलता कि समय कहाँ निकल गया। इन विषयों को जैनाचार्यों ने 'विकथा' कहा है। इनमें अनुरक्त होना ‘प्रमाद' है। साधक इनसे विरक्त होने का प्रयास करता है। आ. भद्रबाहु ने तो यहाँ तक कहा है कि जो संयमी होते हुए भी प्रमादी है, वह जो भी कथा करता है, उसे 'विकथा' ही माननी चाहिए।108
व्यक्ति को इन विकथाओं को बोलने एवं सुनने में अपने कीमती समय एवं शक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए। जैनाचार्यों के अनुसार, 'यदि हमें वार्ता करनी ही है, तो धर्मकथा ही करनी चाहिए, क्योंकि ये धर्मकथाएँ हमारे जीवन-प्रबन्धन का पाथेय होती हैं।' ओघनियुक्तिभाष्य में स्पष्ट कहा गया है – 'सद्गुणों की प्राप्ति के लिए धर्मकथा की जाती है। 109 धर्मकथाओं के माध्यम से होने वाली स्व–पर जीवनोपयोगी चर्चाएँ आत्मिक शान्ति और आनन्द की अभिवृद्धि करती हैं।
मितभाषिता का अर्थ अस्पष्टभाषिता बिल्कुल नहीं है। संप्रेषण अर्थपूर्ण एवं सुस्पष्ट होना चाहिए। वस्तुतः , वचन की फलश्रुति है – अर्थज्ञान। जिस वचन को बोलने पर अर्थ का ही ज्ञान न हो सके, तो उस वचन से भला क्या लाभ?110 विशेषावश्यकभाष्य में गुरु-शिष्य के उदाहरण के माध्यम से परस्पर अस्पष्ट-संप्रेषण की व्यर्थता पर कटाक्ष करते हुए कहा गया है – “वह गुरु, गुरू नहीं, अपितु बधिर के समान है, जिससे पूछा कुछ और जाए तथा वह बताए कुछ और। इसी प्रकार वह शिष्य भी शिष्य नहीं है, जो सुने कुछ और तथा कहे कुछ और ।”111 दशवैकालिक में सन्तुलित संप्रेषण पर जोर दिया गया है। सामान्यतः ‘कहने-सुनने' की क्रिया को समाज से पूरी तरह हटाया नहीं जा सकता। इसका अपना
औचित्य एवं उपयोगिता है। 12 लेकिन इसमें कितने' का विवेक व्यक्ति की सजगता की कसौटी हैं, बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह न अति बोले और न अल्प।
दशवैकालिकसूत्र में ठीक ही कहा गया है – 'व्यक्ति स्वानुभूत, परिमित, असन्दिग्ध, परिपूर्ण और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे, किन्तु यह भी ध्यान रखे कि यह वाणी वाचालता से रहित और दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो। 113 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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