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मौन वही सार्थक है, जिसमें मन और वचन दोनों का पूर्ण संयम रहे और अंतरंग में शान्ति एवं आनन्द की अभिवृद्धि हो। मौन वह है, जिसमें न संकेत हो, न इशारा हो और न ही हुँकारा हो। ऐसा मौन एक घण्टे भी किया जाए, तो भी वह अमूल्य है। यदि ऐसा मौन न हो, तो वह केवल एक ढर्रा या रूढ़ि ही है। एक बार की बात है, एक घर में सास और बहू दोनों मौजूद थीं। सास मौन में बैठी थी, जबकि बहू रसोई में काम कर रही थी। उसी समय एक कुत्ता वहाँ आया और रोटियाँ लेकर भागने लगा। सास ने कुत्ते को देखा। उससे रहा नहीं गया। सास ने लाठी लेकर पीटना प्रारम्भ कर दिया। जैसे ही बहू ने पीछे पलटकर देखा, सास ने उसे इशारा करते हुए बताया – 'देखो! कुत्ता रोटियाँ लेकर भाग रहा है'। क्या यह मौन सार्थक है? नहीं। सार्थक तो वह मौन है, जिसमें व्यक्ति स्वस्थ और शान्त रहे।11 मौन में बहिर्जल्प और अन्तर्जल्प – इन दोनों का निषेध होना चाहिए। सम्यक् मौन तभी सम्भव है, जब बोलने का प्रयोजन ही समाप्त होता जाए। जैसे-जैसे बोलने का प्रयोजन समाप्त होता जाता है, वैसे-वैसे मौन स्वयं जीवन में उतरने लगता है। भगवान् महावीर का जीवन-चरित्र इसी तथ्य का जीवन्त दृष्टान्त है। संयम-जीवन अंगीकार करने के पश्चात् उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को इतना सीमित कर लिया कि उनके पास बोलने का प्रयोजन ही नहीं बचा और इसीलिए साढ़े बारह वर्ष के साधनाकाल की दीर्घावधि में भी वे प्रायः मौन रहे।73 कबीर और फरीद के जीवन का भी एक प्रेरक प्रसंग है। ये दोनों महान् साधक किसी अवसर पर मिले। पाँच-छह घण्टों तक आमने-सामने बैठे रहे, लेकिन कोई एक अक्षर भी नहीं बोला। अन्त में बिना बोले ही चले गए। दोनों ने मौन रहकर ही एक-दूसरे को समझ लिया, अतः बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
यहाँ यह समझना भी आवश्यक होगा कि संवादहीनता (Communication Gap) मौन नहीं है। आजकल सामुदायिक जीवन में मतभिन्नता और मनभिन्नता से परस्पर वैर-वैमनस्य के स्वर मुखर होते जा रहे हैं। पिता-पुत्र, सास-बहू, माँ-बेटी, पति-पत्नी, सेवक-स्वामी, अधिकारी-अधीनस्थ अथवा गुरु-शिष्य ही क्यों न हो, सभी के बीच कहीं न कहीं मधुर सम्बन्धों में खटास आ रही है। इससे संवादहीनता की स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं। एक-दूसरे को देखकर अनदेखा करना अथवा सुनकर भी अनसुना कर देना, आज आम बात हो गई है। कभी-कभी तो यह संवादहीनता लम्बे समय तक जीवन से जुड़ जाती है, यहाँ तक कि आजीवन भी। कई व्यक्ति यह कहते हुए सुनाई देते हैं - 'आज के बाद मुझसे बात करने की जरुरत नहीं है', 'मैं तो उससे अब कभी बात नहीं करूंगा', 'मेरी
और उसकी बरसों से बातचीत बन्द है' इत्यादि। कभी-कभी तो यह संवादहीनता पीढी-दर-पीढ़ी भी चलती रहती है। प्रश्न उठता है कि क्या यह उचित है? और क्या जैनाचार्य ऐसी संवादहीनता के पक्षधर हैं? नहीं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा है - वचन-गुप्ति (मौन) से निर्विकार भावों की प्राप्ति होनी चाहिए, अंतरंग में द्वेष और द्वन्द्व हो और बाह्य में मौन (संवादहीनता) हो, तो यह कोई उचित समाधान नहीं है। ऐसे प्रसंगों में जैनाचार्यों ने बाह्य मौन की अपेक्षा समता को प्राथमिकता देने का निर्देश दिया है। कहा गया है - 'अणेगछन्दा इह माणवेहिं' अर्थात् इस संसार में मनुष्यों के विचार, शौक,
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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