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6.8 निष्कर्ष
__संप्रेषण या अभिव्यक्ति वह प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति अपने विचारों, सूचनाओं, भावनाओं एवं अनुभूतियों को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि दूसरे उसके ज्ञान एवं अनुभूति में सहभागी बन सकें। यह अभिव्यक्ति शारीरिक एवं भाषिक के भेद से दो प्रकार की होती है। मनुष्य के सामुदायिक जीवन की सफलता मुख्यतया सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति के कौशल पर ही निर्भर करती है। यद्यपि शारीरिक-अभिव्यक्ति की अपनी उपयोगिता है, फिर भी सटीकता, स्पष्टता एवं सुगमता के कारण भाषिक-अभिव्यक्ति के विशिष्ट महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता।
मनुष्य में भाषिक-अभिव्यक्ति की सर्वाधिक विकसित क्षमता है, फिर भी वह इस क्षमता का अधिकांशतया दुरुपयोग ही करता रहता है। वह विकथा, आत्म-प्रशंसा, हास्य, मुखरता, मृषावाद, माया-मृषावाद आदि असंयमित वाक् व्यवहार में उलझ जाता है। इसके अनेक दुष्परिणाम प्रकट होते हैं, जैसे - शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का ह्रास, प्राण-शक्ति का अपव्यय, शारीरिक रोगों को आमंत्रण, भावात्मक कमजोरियों की अभिवृद्धि, धार्मिक एवं नैतिक संस्कारों में गिरावट, एकाकीपन की निराशा आदि।
भाषिक-अभिव्यक्ति के दुरुपयोग से बचने के लिए व्यक्ति को आवश्यकता है - भाषिक-अभिव्यक्ति-प्रबन्धन की। इससे व्यक्ति में यह विवेक विकसित हो जाता है कि मैं क्या बोलूँ, किससे बोलूँ, कितना बोलूँ, क्यों बोलें, कब बोलूँ, किस तरह से बोलूँ इत्यादि। इस हेतु जैनदर्शन में भाषा-गुप्ति एवं भाषा-समिति के उपयोगी सूत्रों का निर्देश दिया गया है। भाषा-गुप्ति के माध्यम से यह बताया गया है कि जहाँ आवश्यकता न हो, वहाँ मौन रहना चाहिए और भाषा-समिति के माध्यम से यह बताया गया है कि जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ भी हित, मित, प्रिय एवं निरवद्य भाषा का प्रयोग ही करना चाहिए।
अभिव्यक्ति-प्रबन्धन के अन्तर्गत वक्तृत्व कला के साथ-साथ श्रवण कला का विकास करना भी अत्यावश्यक है। इस हेतु जैनदर्शन में अनेकान्तवाद पर आधारित नय और निक्षेप के सिद्धान्त प्रतिपादित किये गए हैं, जो वक्ता के अभिप्राय को सम्यक्तया समझने के उत्तम साधन हैं। इनका सम्यक् प्रयोग करना प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का परम कर्तव्य है। अतः उसे नियमबद्ध होकर इनका अभ्यास करना चाहिए।
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अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन
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