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30) अपने से बड़ों के बीच में नहीं बोलना। 31) दो सज्जन पुरूषों के बीच में नहीं बोलना। 32) किसी के भी साथ कुतर्क नहीं करना। 33) अपने से छोटों/बड़ों के काम-काज में अनावश्यक रोक-टोक एवं प्रतिबन्ध नहीं लगाना। 34) अपने से छोटों/बड़ों के कार्यों में अनावश्यक गलतियाँ नहीं निकालना। 35) कर्कश एवं कठोर शब्दों का प्रयोग नहीं करने के लिए सदैव सजग रहना। 36) चापलूसीपूर्ण शैली में बातचीत नहीं करना। 37) प्रतिदिन एक निश्चित काल तक मौन धारण करना। 38) मौन-काल को छोड़कर शेष समय में मितभाषी बनने का अभ्यास करना, जैसे -
i) मित्र के साथ बातचीत करने में ii) ग्राहक के साथ बातचीत करने में iii) विक्रेता के साथ बातचीत करने में iv) पड़ोसी के साथ बातचीत करने में v) मेहमान के साथ बातचीत करने में vi) टेलीफोन/मोबाईल (दूरभाष) पर बातचीत करने में
vii) परिजन के साथ बातचीत करने में इत्यादि। 39) मितभाषिता के अभ्यास के लिए बारम्बार विषयानुरूप बोलने का अभ्यास करना। 40) मितभाषिता हेतु समयसीमा में अपनी बातचीत एवं वक्तव्य को पूर्ण करने के लिए तत्पर रहना। 41) अधिक वाक्यों में कथनीय विषय को अल्प वाक्यों में एवं अल्प वाक्यों में कथनीय विषय को
कुछैक बिन्दुओं अथवा शब्दों के द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न करना। 42) स्थूल असत्य का पूर्ण त्याग करना एवं सूक्ष्म असत्य का त्याग करने की पूर्ण भावना रखना। 43) उपकारी, सहचारी एवं आदरणीय जनों के समक्ष झूठ का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं करना,
जैसे – माता-पिता, गुरुजन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि से बातचीत करते समय इत्यादि।
यदि उपर्युक्त बिन्दुओं को जीवन में एक साथ आत्मसात् किया जाए, तो अति उत्तम, किन्तु यदि न हो सके, तो भी प्रतिसप्ताह अथवा प्रतिमाह एक-एक बिन्दु की अभिवृद्धि करते जाना चाहिए।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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