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और आत्मा में एक क्रमिक श्रेष्ठता है। शरीर रथ है, तो इन्द्रियाँ अश्व। दोनों के संयोजन से ही गति सम्भव है। मन भी इन्द्रियों से पृथक् नहीं है, अपितु श्रेष्ठ है, क्योंकि वही इन्द्रियों का संचालन करता है। वह आत्मा की अनुमति से ही इन्द्रियों को स्वेच्छा से विचरण हेतु स्वतंत्रता भी देता है और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें नियंत्रित भी करता है। इस प्रकार इन्द्रियाँ मन के इशारे पर कार्य करती रहती हैं।18 7.1.2 जैनदर्शन में मन का स्वरूप
भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें वैज्ञानिक पद्धति से मन का सुव्यवस्थित विश्लेषण किया गया है। जीवन-प्रबन्धन सह मन-प्रबन्धन के लिए इसमें वर्णित मन एवं उसके स्वरूप को जानना अत्यावश्यक है। (1) मन एवं उसका आशय - जैनदर्शन में अन्तःकरण, मानस, हृत्, चेतस्, हृदय, चित्त, स्वान्त, अनिन्द्रिय, विज्ञान आदि अनेक शब्दों से मन को व्याख्यायित किया गया है। ये सभी शब्द मन की विभिन्न अवस्थाओं को इंगित करते हैं।
जैनाचार्यों ने अलग-अलग प्रकार से मन को परिभाषित किया है - ★ विशेषावश्यक भाष्यानुसार 20 – 'मनन करना ही मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया
जाता है अथवा जो मनन करता है, वह मन है।' ★ सूत्रकृतांगसूत्रानुसार21 - 'जो सर्व विषयों को ग्रहण करने वाला है, किन्तु एक साथ दो
विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ होता है, वह मन है।' ★ स्थानांगसूत्र टीकानुसार? – 'संकल्प जिसकी प्रवृत्ति है, वह मन है।' ___ इस प्रकार, मन के प्रबन्धन को जीवन-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू माना जा सकता है, क्योंकि इसका सम्यक् प्रबन्धन करके उचित विषयों का ग्रहण एवं अनुचित विषयों का परिहार किया जा सकता है। (2) मन के विविध प्रकार - जैनदर्शन के अनुसार, मन के दो प्रकार होते हैं - (क) द्रव्य-मन - यह मन का भौतिक पक्ष है, जो मनोवर्गणा नामक पुद्गल परमाणुओं से बना होता है। भगवतीसूत्र के अनुसार, यह आत्मा नहीं, अपितु अजीव है। इसे हम मन का शारीरिक पक्ष भी कह सकते हैं। (ख) भाव-मन – यह मन का अभौतिक पक्ष है, जो चैतन्यधारा के रूप में प्रवाहित होता रहता है। पौद्गलिक परमाणुओं से नहीं बना होने के कारण इसे शारीरिक नहीं, अपितु आत्मिक पक्ष मानना चाहिए। धवलाटीका के अनुसार, यह चेतना की वह शक्ति है, जो सम्यक् प्रकार से विषयों को ग्रहण करती रहती है।24 367
अध्याय 7: तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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