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रहे हैं, श्रवणकला के अभाव में परस्पर सामंजस्य स्थापित करना अतिकठिन होता जा रहा है। संयुक्त परिवार तो दूर की बात, आज एकल परिवार में भी सामंजस्य की कमी है, हर व्यक्ति सिर्फ अपनी हाँकना चाहता है। उसे सिर्फ अपनी बात सुनाने की इच्छा है, किन्तु दूसरों की बातों को धैर्य, विनम्रता
और शान्ति के साथ सुनने में रुचि नहीं है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि कोई भी व्यक्ति किसी को सुनना एवं समझना ही नहीं चाहता। घर हो या कार्यालय, शिक्षालय हो या चिकित्सालय, कोर्ट हो या कोतवाली, संसद हो या विधानसभा प्रायः सभी ओर इसी समस्या का आधिक्य है। स्पष्ट है कि सम्यक् श्रवणकला का विकास करना भी अभिव्यक्ति-प्रबन्धन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।
आगे, श्रवणकला के विकास से सम्बन्धित सिद्धान्तों की चर्चा जैनदर्शन के आधार पर की जा रही है - जैनदर्शन में नय और निक्षेप
जैनाचार्यों ने शब्द या कथन के सम्यक् अभिप्राय को समझने के लिए ‘नय' और 'निक्षेप' के सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। 189 इन सिद्धान्तों के आधार पर सम्यक् अर्थ निर्धारण करके हम अपनी प्रतिक्रियाओं को सम्यक्तया प्रस्तुत कर सकते हैं। प्रतिक्रियाओं अथवा प्रत्युत्तरों पर सम्यक् नियंत्रण तभी सम्भव हो सकेगा, जब हम वक्ता के आशय को सही ढंग से समझें। कहा भी गया है – ‘पहले तौलो, फिर बोलो'।190 बिना सोचे-विचारे की गई बातें अनर्थ का कारण बन जाती हैं और तब राई का पर्वत बनते देर नहीं लगती। इस गहन समस्या का एक ही समाधान है और वह है - अनेकान्तवाद पर आधारित ‘नय' और 'निक्षेप' के सिद्धान्त। (क) नय – नय का शाब्दिक अर्थ है - नजरिया या दृष्टिकोण (Point of View)। दूसरे प्रकार से 'वक्तुरभिप्रायो नयः' अर्थात् वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं।191 कहने का आशय यह है कि जिस दृष्टिकोण से वक्ता का कथन होता है, उसी दृष्टिकोण से श्रोता का श्रवण भी होना चाहिए अर्थात् समान नय से संप्रेषण (Communication) होने पर मतभिन्नता नहीं हो सकती, प्रत्युत मतैक्य स्थापित हो जाता है। यही प्रबन्धन की दृष्टि से नय-सिद्धान्त का महत्त्व है। श्रोता को चाहिए कि वह सम्यक नय का प्रयोग कर वक्ता के अभिप्राय को तात्कालिक सन्दर्भ के आधार पर समझे।
किसी एक प्रसंग को लेकर जितने वचन-व्यवहार (कथन करने की शैलियाँ) सम्भव हैं, उतने ही नय होते हैं।192 फिर भी मोटे तौर पर जैनाचार्यों ने सात नयों का निर्देश दिया है, जो इस प्रकार
हैं
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1) नैगम नय193 – सर्वार्थसिद्धि के अनुसार, 'संकल्पमात्रग्राही नैगमः' अर्थात् नैगमनय केवल वक्ता के संकल्प (साध्य) को ग्रहण करता है।194 इस नय (दृष्टिकोण) से किए जाने वाले कथनों में वक्ता की दृष्टि वर्तमान पर नहीं होते हुए भूतकालीन या भविष्यकालीन किसी साध्य पर होती है, जैसे - प्रत्येक चैत्र सुदी तेरस के दिन को ‘महावीर-जयन्ती' कहना ‘भूत नैगमनय' हैं अथवा चिकित्सा महाविद्यालय
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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