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स्वभाव, रुचियाँ आदि भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। 14 अतः प्रिय या अप्रिय दोनों को समभाव से सहन करना चाहिए। इसके लिए स्वाध्याय की साधना अपनानी चाहिए, क्योंकि स्वाध्याय सभी विषयों पर प्रकाश डालता है।115 इससे हमारी गलतफहमियाँ, क्रोध, अहंकार, असूया आदि दुर्भाव विनष्ट हो जाते हैं। 176 कहा भी गया है-“स्वाध्याय करने से समस्त दुःखों, तनावों एवं अशान्ति से मुक्ति मिल जाती है। 177 वस्तुतः स्वाध्याय वह माध्यम है, जिससे प्राप्त सम्यग्ज्ञान से आत्म-शुद्धि होती है और यही आत्म-शुद्धि सम्यक् वचन-गुप्ति (मौन) का आधार है।
जीवन-व्यवहार में मौन का प्रयोग कहाँ-कहाँ किया जा सकता है, यह प्रश्न भी विचारणीय है। जैनाचार्यों ने मूल में देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर इसका निर्णय करने का निर्देश दिया है। शब्द तो केवल सृजन और संहार करने में समर्थ होता है, किन्तु मौन का प्रभाव शब्द से भी अधिक गहरा है। कहा भी गया है – 'बोलने के लिए वाणी चाहिए, पर चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों चाहिए। अतः कब चुप रहना है, उस क्षण को जान लेना बहुत मूल्यवान् है।178 कहा जा सकता है कि प्रगाढ़ चिन्तन-मनन करके ही व्यक्ति को 'बोलने' अथवा 'मौन रहने' का निर्णय करना चाहिए।
फिर भी कुछैक ऐसे प्रसंग जीवन में आते हैं, जहाँ सामान्य रूप से मौन का पालन किया जाना ही चाहिए। 'मत बोलो अणगमती वाणी' – इस लेख में साधक के व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए मौन-प्रयोग के लिए योग्य प्रसंगों के निर्देश दिए गए हैं, जैसे - 1) भोजन करते समय
6) श्मशान भूमि पर 2) चलते समय
7) वाणी की प्रियता बढ़ाने के लिए 3) बड़ो के सामने
8) समस्या के समाधान पाने के लिए 4) सभास्थलों में
9) रोग-मुक्ति के लिए 5) शयन से पूर्व
10) स्मृति-विकास के लिए179 यदि उपर्युक्त बिन्दुओं की मीमांसा की जाए, तो आज के परिवेश में इनकी उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। भोजन करते हुए बातें करने से कई बार क्या खाने में आ रहा है, इसका विवेक नहीं रह पाता। यहाँ तक कि भोजन श्वासनली में भी जा सकता है। चलते-चलते कई लोग आपस में अथवा मोबाईल पर बातें करते रहते हैं और ध्यान चूकने से बड़ी दुर्घटनाएँ घटित हो जाती हैं। बड़े गुरुजन आदि जब आपस में वार्ता करते हों अथवा भाषण आदि करते हों, तो उनके बीच में बोलने से हम अशिष्ट और मूर्ख कहलाते हैं और कभी-कभी कोप के भागी भी बन जाते हैं। 180 बड़ों के अनुशासन से कुपित होने पर व्यक्ति अशिष्ट भाषा का भी प्रयोग कर लेता है, जिससे बड़ों से प्राप्त होने वाले ज्ञानादि की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से वंचित रह जाता है। 181 प्रवचन आदि सभास्थलों में हमारा उद्देश्य केवल श्रवण का होना चाहिए, लेकिन वहाँ पर भी यदि हम अपनी बातें शुरु कर देते हैं, तो इससे न केवल उपयोगी विषयों के श्रवण से वंचित रह जाते हैं, अपितु दूसरों के कोपभाजन बन जाते हैं। शयन से पूर्व वाणी-विकल्पों का विश्राम आवश्यक है, ऐसा नहीं करने पर रात्रि में निरंकुश
अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन
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