________________
आज सभी ओर सावद्य (दोषपूर्ण) वचनों का ही बोलबाला है। अधिकांश वक्ताओं में निरवद्य वचनों के प्रति निष्ठा और समर्पण भी नहीं है, यहाँ तक कि सावद्य-निरवद्य का सुस्पष्ट भेद करने वाली सम्यक् समझ का भी अभाव है। उन्हें इतना भी ज्ञात नहीं है कि 'मैं जो बोल रहा हूँ, वह बोलने योग्य है भी या नहीं।'
जैनाचार्यों ने इसीलिए भाषा (वचनों) का स्याद्वादमय, सटीक एवं सूक्ष्म स्पष्टीकरण किया है। उनके अनुसार, जो बोली जाए वह भाषा है (भाष्यते इति भाषा)। भाषा अवधारिणी अर्थात् अर्थबोध कराने वाली होती है, क्योंकि इससे पदार्थ का अवधारण अर्थात् निश्चय होता है।118 किन्तु यह भाषा सत्य, असत्य (मृषा), सत्यासत्य (मिश्र) एवं असत्यासत्य (व्यवहार) – ऐसे चार प्रकार की होती है और इसीलिए यह आवश्यक नहीं है कि हर बात जो बोली जाती है, वह उचित अर्थात् बोलने योग्य ही हो। इन चार भाषाओं को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है - ★ सत्यभाषा - जो सत् अर्थात् विद्यमान पदार्थों का सम्यक् बोध कराती हो, हितकारिणी हो और
जीवादि तत्त्वों की सम्यक् प्ररूपणा करती हो, वह सत्य-भाषा कहलाती है। संक्षेप में, वस्तु-स्वरूप का यथोचित प्रतिपादन करने वाली भाषा ‘सत्यभाषा' है।119 ★ असत्यभाषा - जो सत्य भाषा से विपरीत स्वरूप वाली हो, वह 'असत्य-भाषा' कहलाती
है।120
★ सत्यासत्य भाषा - जिसमें सत्य और असत्य दोनों मिश्रित हों अर्थात् जिसमें कुछ अंश सत्य
हो और कुछ अंश असत्य हो, वह ‘सत्यासत्य' या 'मिश्र भाषा' कहलाती है।121 ★ असत्यासत्य भाषा - जो भाषा इन तीनों प्रकार की भाषाओं में समाविष्ट न हो सके अर्थात् जिसे सत्य, असत्य या मिश्ररूप नहीं कहा जा सके अथवा जिसमें इन तीनों भाषाओं में से किसी भी भाषा का लक्षण घटित न हो, वह 'असत्यासत्य (व्यवहार) भाषा' है। इस भाषा के विषय आमन्त्रण, निमन्त्रण, आदेश, उपदेश आदि हैं।122
जैनदृष्टि से सत्य आदि चारों भाषाओं की पहचान निम्न प्रकार से की जा सकती है - 1) जो आराधक हो, वह सत्य भाषा - जिसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना की जाए अथवा
वस्तु-स्वरूप का यथार्थ कथन किया जाए, वह आराधक भाषा कहलाती है। दूसरे शब्दों में, जो
आराधक हो, उसी भाषा को सत्य-भाषा समझनी चाहिए।123 2) जो विराधक हो, वह असत्य भाषा – जो भाषा वस्तु–स्वरूप की मिथ्या स्थापना करने के
आशय से कही जाती है अथवा जो भाषा सत्य होते हुए भी अप्रासंगिक, दुराशययुक्त और परपीड़ाजनक हो, वह विराधक भाषा कहलाती है। विराधक भाषा को ही असत्य-भाषा समझनी
चाहिए।124
28
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
332
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org