________________
5) द्वेषपूर्ण चित्त से युक्त होकर ऐसा सत्य वचन भी नहीं कहना चाहिए, जिससे किसी को
तकलीफ हो। 6) संशय उत्पन्न करने वाली व्यवहार भाषा भी नहीं कहनी चाहिए, जिसमें आशय को छिपाकर
दूसरों को भ्रम में डालने के लिए अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग किया जाए, जैसे – 'अश्वत्थामा
हतो नरो वा कुंजरो वा'। 138 7) वस्तु का यथार्थ निर्णय (विचार) किए बिना ही सत्य लगने वाली असत्य वस्तु को सहसा सत्य
नहीं कह देना चाहिए, जैसे – पुरूष वेषधारी स्त्री को पुरूष कहना।139 8) जहाँ मृषावाद की सम्भावना हो, वैसी शंकित भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। यद्यपि अतीत,
वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी ऐसी शंकित भाषा का प्रयोग किया अवश्य जाता है, किन्तु करना नहीं चाहिए, जैसे - 'हम जाएँगे', 'हमारा अमुक कार्य हो जाएगा', 'मैं यह करूँगा' इत्यादि।140 इस आधार पर बिना विचारे ही झूठे आश्वासन देना, झूठे वादे करना, झूठे गप्पे
मारना, सुनी-सुनाई अफवाहें फैलाना आदि कार्यों का निषेध करना चाहिए। 9) किसी भी काल के सम्बन्ध में किसी विषय की अनभिज्ञता होने पर भी निश्चयात्मक भाषा का
प्रयोग नहीं करना चाहिए, जैसे – 'यह ऐसा ही है'।141 10) किसी भी काल के सम्बन्ध में किसी विषय में शंका होने पर भी निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग __ नहीं करना चाहिए, जैसे – 'यह ऐसा ही है'।142 11) ओ कुत्ते!, हे भिखारी!, हे शूद्र! , अरे दुर्भागी! आदि सम्बोधनवाची शब्दों का प्रयोग नहीं करना
चाहिए, क्योंकि ये तुच्छता, दुश्चेष्टा, दीनता, अनिष्टता, विग्रह, तिरस्कार आदि के सूचक
हैं।143 12) हे दादी!, हे नानी!, हे काकी!, हे बेटा!, हे पुत्री।, हे स्वामिन्!, हे स्वामिनी!, हे बुआ!, हे
चाचा! आदि शब्दों का प्रयोग भी कम से कम मुनि को तो नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने सांसारिक सम्बन्धों का त्याग कर दिया है। यदि इन शब्दों में चाटुकारिता, मौकापरस्ती, स्वार्थपरकता, शठता आदि मनोभावों का पुट है, तो सामान्य व्यक्ति के लिए भी ये अवक्तव्य
13) यहाँ तक कि पंचेन्द्रिय प्राणियों के विषय में जब तक यह निश्चय नहीं हो जाए कि यह नर है
अथवा मादा, तब तक ‘गौ जाति', 'अश्व जाति' का प्राणी आदि शब्दों का प्रयोग करना
चाहिए।145 14) मनुष्य, पशु-पक्षी आदि के विषय में अनुचित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जैसे -
किसी को ‘स्थूल (मोटा)' कहने के बजाय 'परिवृद्ध' कहा जा सकता है, वध्य (वध करने योग्य)
कहने के बजाय 'युवा' कहा जा सकता है इत्यादि ।146 15) 'ये पेड़ फर्नीचर, द्वार आदि बनाने के लिए उपयुक्त हैं', ऐसा कहना भी जैन मुनि के लिए
34
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
338
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org