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क्योंकि उनके अनुसार, इससे नीच–गोत्र-कर्म का बन्धन होता है।29 (3) हास्य
कई चौराहों और चौपालों पर अथवा घरों, दुकानों एवं सामाजिक कार्यक्रमों में हँसी-मजाक होना आम बात है। यह वृत्ति दिनोंदिन बढ़ रही है। अधिकांशतया ऐसी चर्चाएँ केवल दूसरों का उपहास करने, व्यंग्य कसने, नीचा दिखाने, तिरस्कार करने, झूठा प्रेम जताने, अश्लील भावनाओं को भड़काने , दूसरों को रिझाने इत्यादि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही होती हैं। इनका स्तर कई बार अत्यन्त निम्न भी हो जाता है। फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में सुने गए कई फूहड़ संवाद, किस्से-कहानियाँ आदि व्यक्ति याद कर लेता है और आएदिन अन्यों को सुनाता रहता है। जैनाचार्यों ने इस वृत्ति को भी असंयमित वाणी प्रयोग के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। जैनदर्शन में श्रावक के लिए इसे 'अनर्थदण्ड' का दोष बताया गया है। अन्यत्र भी इसे 'हास्य-कषाय' नामक दोष माना गया है। यह वृत्ति व्यक्ति की गम्भीरता, सभ्यता, शिष्टता, शालीनता और मितभाषिता की विरोधी है। (4) पाप-कथन
इसी प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व में व्याप्त भाषिक-अभिव्यक्ति के दोषों की झलक हमें उसके क्रियाकलापों में भी दृष्टिगोचर होती है। बात-बात में झूठ बोलना (मृषावाद), चिल्ला-चिल्लाकर वाचिक-विवाद करना (कलह), एक-दूसरे पर झूठा दोषारोपण करना (अभ्याख्यान), दूसरों की गोपनीय बातों को प्रकट करना अर्थात् चुगलखोरी करना (पैशुन्य), निन्दा करना (पर-परिवाद), अन्यों को ठगने की इच्छा से झूठ बोलना (माया-मृषावाद) आदि ऐसे कार्य हैं, जिनमें वाणी का दुरुपयोग होता है और जिन्हें जैनाचार्यों ने अठारह पापस्थानकों में स्थान दिया है। वस्तुतः ये दोष हमारे व्यक्तित्व की ही विसंगतियाँ हैं। इनसे लोक-व्यवहार और व्यावसायिक क्रियाकलाप भी बाधित होते हैं, अतः यह अभिव्यक्ति की अकुशलता या कुप्रबन्धन है। (5) मुखरता
भाषिक-अभिव्यक्ति के दुरुपयोग का ही एक रूप है – 'मुखरता' या 'वाचालता'। आज व्यक्ति 'खूब बोलना' अपनी एक खूबी मानता है। कहा भी गया है – बुद्धिमान् पुरूष तो सन्देह में रहता है कि कहाँ से बोलना आरम्भ करे, किन्तु मूर्ख यह नहीं जानता कि कहाँ बोलना समाप्त करे। साथ ही अनादरपूर्वक , अशिष्टतापूर्वक और अहंकारपूर्वक बोलना व्यक्ति की आदत बनती जा रही है। भगवान् महावीर का यह कथन वर्तमान परिवेश में विशेष रूप से विचारणीय है कि 'मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमथू' अर्थात् मुखरता से सत्य-वचनों का विनाश होता है। 33 वस्तुतः वाचालता, बहुत अधिक बोलना, बड़-बड़ करना, शोर-गुल करना, हल्ला-गुल्ला करना आदि समझदारी नहीं, वरन् हमारे व्यक्तित्व की बहुत बड़ी कमजोरी है। जैनाचार्यों का कथन है कि हास्यवश, लोभवश क्रोधवश बोला गया सत्य भी असत्य ही है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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