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(6) मृषावाद
आज झूठ बोलने की वृत्ति धुन्ध के समान तीव्र गति से समाज में फैल रही है। भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र , माँ-बेटी, मित्र-मित्र, गुरु-शिष्य आदि कोई भी पवित्र रिश्ता क्यों न हो, इससे अछूता नहीं है। हर व्यक्ति की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग रहे हैं। बड़े-बड़े राजपुरूषों, अफसरों, व्यापारियों, खिलाड़ियों, विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं विद्यार्थियों के काले-कारनामों के राज आएदिन प्रकट हो रहे हैं। इससे मानसिक शान्ति भंग होती है, सामाजिक स्थिति कमजोर होती है और जीवन कलंकित हो जाता है। अतः दशवैकालिक में सरल-सत्य जीवनशैली की सराहना करते हुए कहा गया है – 'मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहुहिं गरहिओ' अर्थात् मृषावाद ऐसा दुष्कृत है, जिससे संसार में समस्त सज्जनों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होता है। अतः वर्त्तमानकालीन एवं भविष्यकालीन दुष्परिणामों का विचार कर हमें झूठे वचनों के प्रयोग का दृढ़ता से खण्डन कर सत्य पर आधारित जीवनशैली अपनानी चाहिए।
कई बार हमें एक मानसिक भ्रम होता है कि असत्य अथवा असत्यमिश्रित सत्य भाषा का प्रयोग किए बिना जीवन-यात्रा आगे नहीं बढ़ सकती। कई लोगों का तो व्यवसाय ही झूठ बोलने पर निर्भर होता है। झूठ बोलना कइयों की आदत में शामिल हो जाता है। ऐसे लोग अकारण ही झूठ बोलते हैं, जैसे - आए थे किसी और काम से, किन्तु कहते हैं – 'हम तो आपसे ही मिलने आए हैं' आदि। कइयों के मुँह से झूठ अनायास ही निकल जाता है। आज झूठ का प्रचलन अत्यधिक बढ़ रहा है, फिर भी जैनाचार्यों ने सदैव सत्य का ही अनुमोदन किया है। वे दृढ़ता से कहते हैं - जीवन-यात्रा में मिलने वाली सुख-समृद्धि एवं सुविधाएँ व्यक्ति के पूर्वकृत पुण्य-पाप कर्मों का फल है, न कि चतुराई युक्त झूठे वचनों का। जब एक मूक मानव और पशु-पक्षी भी बिना झूठ बोले अपना जीवन-यापन कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? जैन मुनि संयम जीवन अंगीकार करने के साथ ही सूक्ष्म से सूक्ष्म असत्य का भी आजीवन त्याग कर देते हैं, तो गृहस्थ क्यों नहीं कर सकते? प्रश्न-व्याकरण में तो सावचेत करते हुए कहा गया है कि असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है, परस्पर वैर बढ़ता है तथा मन में संक्लेशभावों की अभिवृद्धि होती है। अतः मन से कभी बुरा सोचना नहीं और वचन से कभी बुरा बोलना नहीं चाहिए। (7) अवक्तव्य वचन
मृषावाद ही कभी-कभी सत्य का रूप बनाकर भी प्रस्तुत होता है, किन्तु व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि सत्य वही सार्थक है, जो स्व–पर जीवन-उत्कर्ष के लिए हो, न कि जीवन-अपकर्ष के लिए, इसीलिए भाषा हमेशा आराधक होनी चाहिए, न कि विराधक। जो वचन कर्णकर्कश, कर्णशूल एवं हृदयविदारक हैं, मानसिक पीड़ाकारक हैं, व्यर्थ-बकवास रूप हैं, आगम-विरुद्ध हैं, प्राणियों के लिए वध-बन्धकारी, वैर-कलह-उत्पादक हैं, गुरुजनों के अवज्ञाकारक हैं, वे सर्ववचन असत्य ही हैं। प्रज्ञापनासूत्र में एक स्थान पर कहा गया है - उपयोग अर्थात्
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अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन
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