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6.6 जैनआचारमीमांसा के परिप्रेक्ष्य में भाषिक-अभिव्यक्ति का प्रबन्धन
भाषिक-अभिव्यक्ति की विशिष्ट क्षमता को प्राप्त प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि इस क्षमता का सन्तुलित, समन्वित और सुव्यवस्थित प्रयोग करे। वह जहाँ तक हो सके वाणी का सकारात्मक प्रयोग करे, नकारात्मक नहीं। वाणी के सम्यक् प्रयोग करने की इस कला को ही हम वाणी-कौशल अथवा वाणी-प्रबन्धन अथवा अभिव्यक्ति-प्रबन्धन कह सकते हैं।
___ आधुनिक युग में इस विषय की उपादेयता एवं लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हो रही है, किन्तु इसमें आध्यात्मिक सूत्रों का पूर्ण अभाव है। इसीलिए अभिव्यक्ति-प्रबन्धन की जो व्याख्याएँ आज जगत् में की जा रही हैं, उनका उद्देश्य केवल बाहरी जगत् में सूचनात्मक-ज्ञान (Informative Knowledge) का आदान-प्रदान करने की कला अथवा वक्तृत्व-कला के माध्यम से श्रोताओं (Audiance) को रिझाना है। इसे ही आज व्यक्तित्व विकास का मापदण्ड भी माना जा रहा है, जो एक बड़ी भूल है।
आध्यात्मिक-दर्शनों विशेषतया जैनदर्शन में वाणी-प्रबन्धन का उद्देश्य वाणी-विवेक का विकास करना है। इससे व्यक्ति के भीतर यह विवेक विकसित हो जाता है कि 'मैं क्या बोलूँ, किससे बोलूँ, कितना बोलूँ, क्यों बोलूँ, कब बोलूँ, किस तरह से बोलूँ' इत्यादि। वह यह विशेष ध्यान रखता है कि 'मैं अपनी भावाभिव्यक्ति इस प्रकार से करूँ कि मैं भी दुःखी न रहूँ और दूसरों को भी दुःख न पहुँचे।' सत्यता और स्याद्वाद पर आधारित यह वाणी-प्रबन्धन वाणी का एक विशिष्ट प्रयोग है, जिससे हमारा जीवन निर्वाह एवं जीवन-निर्माण दोनों हो सकता है। 6.6.1 अभिव्यक्ति में स्याद्वादता (सापेक्षता)
भगवान् महावीर एकान्तवाद (Onesidedness) या आग्रह बुद्धि के पक्ष में कभी नहीं रहे। उन्होंने न 'मौन' का पक्ष लिया और न ही 'अतिवाचालता' का। उन्होंने हमेशा देश, काल और परिस्थिति के आधार पर विचार करके वाग्निर्णय करने के लिए कहा है। उनका कहना है कि व्यक्ति जो कुछ बोले, पहले विचारे फिर बोले। प्रत्येक साधक के लिए जीवन में दो कर्त्तव्य होते हैं – सम्पर्क (प्रवृत्ति) और साधना (निवृत्ति)। सम्पर्क के लिए भाषा का प्रयोग करना होता है, जबकि साधना के लिए भाषा का निरोध।" उसे अपनी भूमिकानुसार इन दोनों पक्षों का समन्वय करना आवश्यक है। हठाग्रही होकर न मौन धारण करना और न व्यर्थ बक-बक करना। वास्तव में वाणी का संयम वह है, जिसमें वाणी का सम्यक् प्रयोग हो, न कि मिथ्या प्रयोग। इस प्रकार, हमारी वाणी में सापेक्षता अवश्य होनी चाहिए और यही अभिव्यक्ति-प्रबन्धन है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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