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विचारपूर्वक बोली जाएँ, तो चारों प्रकार की भाषाएँ आराधक हैं और विवेकरहित होकर बोली जाएँ, तो चारों ही भाषाएँ विराधक हैं, क्योंकि इनमें प्रमाद है। हमारी वाणी ऐसी होनी चाहिए, जिसमें स्व और पर दोनों का अपकर्ष न हो। आचारांग में इसीलिए एक उपयोगी निर्देश दिया गया है - 'न अत्ताणं आसाएज्जा, नो परं आसाएज्जा' अर्थात् न अपनी अवहेलना करो, न अन्यों की। यह सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक पहलू, विशेषतः वाणी के क्षेत्र में भी पूर्ण प्रयोज्य है।38 (8) माया-मृषावाद
मृषावाद का ही एक अन्य रूप 'माया-मृषावाद' है, जो वर्तमान में अत्यन्त मुखर होता जा रहा है। व्यक्ति के विचार, वाणी और व्यवहार में एकरूपता नहीं दिखाई देती। 'मुख में राम, बगल में छूरी' - यह कहावत अधिकांश लोगों के जीवन में चरितार्थ होती है। चाहे नेताओं का आश्वासन हो, व्यापारी की ग्राहक के प्रति आत्मीयता की अभिव्यक्ति हो, भ्रष्ट अफसर की अन्यों के प्रति की गई शुभकामनाएँ हों अथवा चापलूस नौकर की चाटुकारितामय वाणी ही क्यों न हो, ये सब झूठ के ही रूप हैं, क्योंकि इनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है। निशीथचूर्णिकार भी कहते हैं – 'अन्नं भासइ, अन्नं करेइ त्ति मुसावाओ' अर्थात् 'कहना कुछ और करना कुछ', यही मृषावाद है।
इस प्रकार, हम भिन्न-भिन्न तरह से अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति का नकारात्मक प्रयोग करते हैं, लेकिन हमें यह सोचना आवश्यक है कि जो अभिव्यक्ति हम कर रहे हैं, उसका परिणाम क्या मिलेगा?
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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