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3) फैक्टरी का बर्फ - बर्फ की सर्वाधिक खपत ग्रीष्म ऋतु में ही होती है। चूंकि इस ऋतु में पानी की उपलब्धता कम होती है, अतः अधिकांश फैक्टरियों में लम्बे समय तक पानी का संग्रह करके रखा जाता है, जिसमें कई जीवाणुओं की उत्पत्ति हो जाया करती है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी तो गन्दे नाले, दूषित कुए आदि के पानी का भी प्रयोग किया जाता है। इससे टाईफाइड, पीलिया, डायरिया आदि रोगों के होने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
इनके अतिरिक्त इस बर्फ में प्रायः वे सभी दोष होते हैं, जो ओले से सम्बन्धित हैं, अतः जैनाचार्यों ने इसे भी त्याज्य बताया है। 4) फ्रीज का बर्फ - इसे भी ओले के समान ही दोषपूर्ण एवं त्याज्य मानना चाहिए। 5) कुएँ, तालाब, नदी आदि का अनछना जल - इस जल को भी पेय नहीं माना जा सकता, इसमें अनेक अस्वास्थ्यप्रद तत्त्व मौजूद होते हैं। इसमें न केवल कचरा, गन्दगी, पॉलिथीन आदि प्रवाहित किए जाते हैं, अपितु जैव अवशेष भी विसर्जित किए जाते हैं। अतः, वैज्ञानिक दृष्टि से यह जल अनेक रोगों का कारण हो सकता है।
जैनाचार्यों ने भी हिंसादि अनेक कारणों से इस जल के सेवन का निषेध किया है। आचारांग में तो मुनिचर्या को दर्शाते हुए कहा गया है कि तालाबादि के जल को ग्रहण करना चौर्यकर्म है।202 6) सार्वजनिक स्थानों की टंकियों का जल - बहुत दिनों तक सफाई न होने से तथा छानने की व्यवस्था भी नहीं होने से जैनाचार्यों ने इस जल के सेवन का भी निषेध किया है। 7) नल, बोरिंग आदि का अनछना जल - जैनाचार्यों के अनुसार, अनछना जल भी असेव्य है, क्योंकि इसमें असंख्यात अप्कायिक जीवों के साथ-साथ अनेक त्रस जीव भी होते हैं। 203 केप्टन स्कोर्सबी ने भी सूक्ष्म-दर्शक यंत्र के द्वारा एक बूंद जल में 36,450 त्रस जीवों को दिखाकर इस तथ्य की पुष्टि की है।204 8) मिनरल वॉटर - यद्यपि शुद्धरीति से बना हुआ मिनरल वॉटर किसी हद तक पेय हो सकता है, फिर भी इसमें प्रयुक्त मिनरल कौन-कौन से हैं, किस प्रक्रिया से इस पानी को बनाया जाता है तथा बनने के कितने काल के पश्चात् इसका सेवन किया जाता है, आदि संदिग्धताओं के कारण से इसे भी पेय नहीं मानना चाहिए। 9) एक्वागार्ड का जल - यह एक आधुनिक तकनीक से प्राप्त जल है, इसीलिए प्राचीन जैनशास्त्रों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि इसमें बैक्टेरिया का अभाव होता है, तथापि इसकी तकनीक से उपभोक्ता अनभिज्ञ होता है। अतः, यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें सूक्ष्म अप्कायिक तथा त्रस जीवों का पूर्ण अभाव होता ही है। जैनाचार्यों ने इसीलिए तीन बार उबाल आए हुए जल के सेवन की प्रमुखता दी है।
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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