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(9) मनोदैहिक-प्रबन्धन
मन की वृत्तियों का स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है, इस बात की स्वीकृति आज आधुनिक शरीरशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक भी कर रहे हैं। प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है – 'चित्त के अधीन यह धातुयुक्त शरीर होता है, चित्त की अस्वस्थता से ये धातुएँ विनाश को प्राप्त होती हैं, अतः चित्त का यत्नपूर्वक रक्षण करना चाहिए। 251 अन्यत्र भी कहा है कि अन्दर की विशुद्धि से बाहर की शुद्धि होती है और अन्दर की अशुद्धि से बाहर में दोष उत्पन्न होते हैं।252
जैनाचार्यों ने सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा उन तत्त्वों को खोजा है, जिनके द्वारा चित्त की स्वस्थता की प्राप्ति की जा सकती है और परिणामतः इस अशुद्ध चित्त से उत्पन्न होने वाले मनोदैहिक रोगों से बचा जा सकता है। जैन-परम्परा में इन रोगों से बचने के लिए भक्ति, पूजा, सामायिक , कायोत्सर्ग, ध्यान आदि नानाविध अनुष्ठानों का प्रावधान है। व्यक्ति इनका यथायोग्य सेवन करके अपने क्रोध, भय, ईर्ष्या, मात्सर्य, असहिष्णुता, अधीरता आदि विकृत मनोभावों को परिष्कृत कर सकता है तथा ऐसा करता हुआ इन भावों से शरीर पर पड़ रहे कुप्रभावों से भी बच सकता है।
वस्तुतः, आहारादि से भी अधिक आवश्यक है - मन की स्वस्थता। यदि मन स्वस्थ है, तो रूखा-सूखा खाने वाला व्यक्ति भी निरामय रह सकता है। भगवान् महावीर का जीवन इस सिद्धान्त का ज्वलन्त उदाहरण है।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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