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★ कीथ डेविस (Keith Devis) के अनुसार, 'सम्प्रेषण वह प्रक्रिया है, जिसमें सन्देश और समझ को एक से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाया जाता है। "
★ न्यूमेन एवं समर (Newman & Summer ) के अनुसार, 'सम्प्रेषण दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य तथ्यों, विचारों, सम्मतियों एवं भावनाओं का विनिमय है । "
★ लुईस ए. एलन (Louis A. Allen) के अनुसार, 'सम्प्रेषण में वे सभी चीजें शामिल हैं, जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपनी बात को दूसरे व्यक्ति के मन तक पहुँचाता है। वस्तुतः, यह सम्प्रेषण दो व्यक्तियों के बीच अर्थबोध करने के लिए सेतु के समान है। इसके अन्तर्गत कहने, सुनने और समझने की सतत एवं व्यवस्थित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। "
उपर्युक्त चिन्तन से यह स्पष्ट होता है कि संप्रेषण एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें दो या अधिक व्यक्ति अपने सन्देशों, भावनाओं, विचारों, सम्मतियों तथा तर्कों का पारस्परिक विनिमय (Exchange) करते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति एक युक्ति या कला है, जिससे सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।' अब प्रश्न यह उठता है कि व्यक्ति अपनी अभिव्यक्तियों का संप्रेषण किस-किस प्रकार से करता है? 6.1.2 अभिव्यक्ति के प्रकार
विश्व के सभी प्राणी आत्माभिव्यक्ति दो प्रकार से करते हैं
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(1) सांकेतिक या शारीरिक अभिव्यक्ति
(2) शाब्दिक या वाचिक (ध्वन्यात्मक) अभिव्यक्ति
(1) शारीरिक या सांकेतिक अभिव्यक्ति
यह अभिव्यक्ति शब्द या ध्वनि के बगैर शारीरिक अवयवों, जैसे - हाथ, पैर, आँख, मुख - मुद्रा आदि की क्रियाओं का प्रयोग करके की जाती है। इसके अन्तर्गत बाह्य संकेतों, जैसे झण्डी, डण्डा, पदक, पुरस्कार, उपहार आदि का प्रयोग भी शामिल है। अपने बच्चे को चूमती हुई माँ, खिलौने की ओर उँगली-निर्देश करता हुआ बालक, रेलवे चौकी पर लाल / हरी झण्डी बताता हुआ कर्मचारी इत्यादि सांकेतिक - अभिव्यक्ति के ही विविध रूप हैं । जैनआचारशास्त्रों में निर्दिष्ट विविध विधि-विधानों में शाब्दिक के साथ-साथ सांकेतिक - अभिव्यक्तियों के सम्यक् प्रयोग को भी बहुत महत्त्व दिया गया है, जैसे चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, प्रतिक्रमण, पूजा इत्यादि की क्रियाओं में विभिन्न मुद्राओं का उपयोग । जैनाचार के अन्तर्गत समता भाव के अभ्यास के लिए निर्दिष्ट सामायिक, देशावगासिक एवं पौषधादि की क्रियाएँ प्रमुख हैं। इनमें शारीरिक शिष्टाचार को भी महत्त्व दिया गया है। सामायिक क्रिया में मन एवं वचन सम्बन्धी दस-दस दोषों के अतिरिक्त, काया के बारह दोषों के लिए भी उपासक को दोषी माना गया है, जैसे पैर लम्बे रख कर बैठना, दीवार से पीठ टिका कर बैठना इत्यादि, क्योंकि ये उपासक की अजागरुकता, अन्यमनस्कता, अरुचि एवं अविनय को इंगित करते हैं।
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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