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5.5 शरीर-प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष
शरीर-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष को जानना ही पर्याप्त नहीं है, जीवन में इसका प्रयोग करने पर ही शरीर रूपी यंत्र को उपयोगी बनाए रखा जा सकता है। चूंकि शरीर का सम्यक् प्रबन्धन करने हेतु अंतरंग में दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं बाह्य में साधनों की अनुकूलता आवश्यक है और इन दोनों की अपनी सीमाएँ भी हैं, अतः यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही प्रयास में अपनी जीवनशैली में शत-प्रतिशत सुधार कर ले, यानि वह शरीर-प्रबन्धन के सभी आयामों पर एक साथ कार्य करे। अतः हम शरीर–प्रबन्धन के सिद्धान्तों के आधार पर पाँच स्तरों में विभाजित एक 'मॉडल' (नमूना) प्रस्तुत कर रहे हैं। जीवन-प्रबन्धक अपनी क्षमता एवं परिस्थिति का स्वयं आकलन कर इस मॉडल को आधार बनाकर उचित स्तर से प्रबन्धन-प्रक्रिया प्रारम्भ कर सकता है और उत्तरोत्तर विकास करता हुआ आगे के स्तर तक पहुँच सकता है। इतना ही नहीं, वह आवश्यकतानुसार भिन्न-भिन्न आयामों (नीचे दिए गए सतरह) में भी भिन्न-भिन्न स्तरों का चुनाव करता हुआ शरीर-प्रबन्धन की प्रक्रिया को क्रियान्वित कर सकता है। यह 'मॉडल' इस प्रकार है - (1) आहार करने का उद्देश्य
1) शरीर स्वस्थ रखने के लिए आहार करना। 2) गृहस्थोचित कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लिए आहार करना। 3) सामान्य धर्म-ध्यान का निर्वाह करने के लिए आहार करना। 4) विशेष धर्म-ध्यान का निर्वाह करने के लिए आहार करना।
5) अनासक्तिपूर्वक सहज आहार करना। (2) आहार कैसा करना
1) मांसाहार, मद्यपान आदि अधिक तामसिक आहार नहीं करना। 2) अभक्ष्य आहार नहीं करना। 3) राजसिक आहार का मर्यादित प्रयोग करना। 4) सन्तुलित एवं सुपाच्य आहार करना। 5) विगइरहित सात्विक आहार करना। (3) आहार कितनी बार करना
1) स्वविवेकपूर्वक सीमित बार आहार करना। 2) संकल्पपूर्वक सीमित बार आहार करना। 3) दिन में अधिकतम तीन बार आहार कर रात्रि में दुविहार/तिविहार के प्रत्याख्यान लेना। 4) बियासना करना। 5) एकासना या उपवास करना।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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