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(7) श्रृंगार (साज-सज्जा)-प्रबन्धन
जैनाचार्यों ने बाह्य शृंगार की अपेक्षा अंतरंग शृंगार को ही महत्त्वपूर्ण माना है। बृहत्कल्पभाष्य में अंतरंग शृंगार के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि नारी का वास्तविक आभूषण तो उसका शील और लज्जा है, न कि बाह्य आभूषण।41 श्रीमद्राजचन्द्र ने भी बीस वर्ष की किशोरावस्था में शृंगार एवं साज-सज्जा सम्बन्धी मर्यादाएँ निर्देशित की, जैसे - शृंगार साहित्य नहीं पढूँ, सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग नहीं करूँ, उच्छृखल वस्त्र नहीं पहनूँ, तंग वस्त्र नहीं पहनूँ, अपवित्र वस्त्र नहीं पहनूँ, वस्त्र का अभिमान नहीं करूँ, सुवासिनी साज नहीं सजूं आदि ।242 मुनि-मर्यादा को बतलाते हुए कहा गया है कि मुनि के लिए शरीर की शोभा-विभूषा आदि करना पूर्ण निषिद्ध व अकल्पनीय है।243
फिर भी, यदि गृहस्थावस्था में लोक-व्यवहार के निर्वाह के लिए साज-सज्जा की आवश्यकता पड़ती हो, तो जैनाचार्यों ने मर्यादित एवं उचित वस्त्र, आभूषण, विलेपन आदि की छूट दी है, जो निम्न निर्देशों से स्पष्ट है -
★ साज-सज्जा में सादगी होना। ★ सीमित प्रसाधनों (Cosmetics) का प्रयोग करना।244 * ब्रह्मचर्य के पालन के लिए बाधक शृंगार सामग्रियों का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना। ★ देश, काल, जाति, आय एवं संस्कृति के अनुरूप साज-सज्जा करना।245 ★ हिंसा से निर्मित प्रसाधनों का प्रयोग कदापि नहीं करना। ★ शरीर-आसक्ति बढ़े, ऐसा शृंगार नहीं करना। * शरीर की अशुचिता का सदैव चिन्तन करना। 246 ___ इस प्रकार, जैनाचार्यों ने कृत्रिम सौन्दर्य की अपेक्षा स्वाभाविक सौन्दर्य को ही उचित ठहराया है। मेरी दृष्टि में, शरीर–प्रबन्धक को चाहिए कि वह अपने आपको सुन्दर, सुडौल एवं चिरयुवा दिखाने के बजाए सादगीपूर्ण रीति से शरीर की शोभा-विभूषा करे। वह यह माने कि जो शरीर प्राप्त हुआ है, वह स्वयं अपने आप में अद्वितीय (Unique) है, क्योंकि किन्हीं भी दो प्राणियों का शरीर शत-प्रतिशत एक जैसा नहीं होता। अतः वह इस स्वाभाविक अद्वितीयता को ही सौन्दर्य का मापदण्ड मानकर सन्तुष्ट
और प्रसन्न रहे। वह सूअर आदि पशुओं की हिंसा से निर्मित अपवित्र प्रसाधनों का उपयोग करके इस स्वाभाविक सौन्दर्य को विकृत न करे और न ही दूसरों (अभिनेता आदि) के समान दिखने की चेष्टा करे। इस प्रकार त्वचा आदि की एलर्जी, फोड़े-फुसी आदि से बचकर अपने समय का सदुपयोग अंतरंग सद्गुणों के शृंगार में करे।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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