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(6) स्वच्छता - प्रबन्धन
जैनदर्शन में अंतरंग स्वच्छता अर्थात् चित्त की निर्मलता एवं पवित्रता हेतु बाह्य स्वच्छता के निर्देश भी दिए गए हैं, जो शरीर - प्रबन्धन के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। प्रत्येक जीवन- प्रबन्धक को चाहिए कि वह इन निर्देशों का अपनी भूमिकानुसार पालन करे। वह इन्हें ऐन्द्रिक कामभोगों का विषय न बनाए, अपितु शरीर रूपी यंत्र की उचित देखभाल हेतु इनका उपयोग करे, जिससे यह शरीर जीवन - साध्य की पूर्ति का साधन बन सके। ये निर्देश इस प्रकार हैं
★ जहाँ महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं कीट-पतंगे आदि जीवों की उत्पत्ति अधिक होती हो, ऐसे स्थानों पर निवास नहीं करना | 235
★ जहाँ शुद्ध हवा और प्रकाश मिल सके, ऐसे स्थानों पर निवास करना | 236
★ मल-मूत्र आदि का उचित विसर्जन करना, जिससे सम्मूर्च्छिम जीवों एवं अन्य कीटाणुओं की उत्पत्ति न हो। 237
★श्रमणों के समान अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, न कि अस्त-व्यस्त ।
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★ जीवों की रक्षा के लिए उचित समय पर उचित प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि करते रहना ।
⭑ गुटखा, पान, तम्बाकू आदि व्यसनों का सर्वथा त्याग करना ।
★ लौकिक त्यौहारों में मर्यादित व्यवहार करना, जैसे दीपावली में पटाखों का त्याग, होली में
रंग खेलने का त्याग आदि ।
★ भोजन में जूठा नहीं डालना, प्रत्युत थाली धोकर पीना एवं पोंछकर रखना ।
★ भोजन के कण नीचे नहीं गिराना ।
★ देव-दर्शन में सात प्रकार की शुद्धियाँ रखना
उपकरण-शुद्धि, मुख-शुद्धि, भूमि-शुद्धि एवं मनः- शुद्धि |
★ अन्य जीवन व्यवहारों में भी उपर्युक्त शुद्धियों का यथोचित पालन करना ।
★ अपशिष्ट पदार्थों को यत्र-तत्र नहीं फेंकना, अपितु निरवद्य ( निर्दोष) स्थान पर जाकर विवेकपूर्वक परठना ।
★ रासायनिक पदार्थों का विवेकपूर्वक उपयोग करना तथा यथासम्भव टालने का प्रयास करना, जैसे - कृषि में कीटनाशक का प्रयोग आदि ।
★ परिग्रह एवं भोग की मात्रा का अल्पीकरण करना, जिससे साफ-सफाई आदि की आवश्यकता भी अल्प हो जाए।
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★ कफ (बलगम), पित्त, वमन, लार आदि को उचित स्थान पर परठकर, उस पर राख आदि डालना, जिससे सम्मूर्च्छिम जीवों एवं अन्य कीटाणुओं की उत्पत्ति न हो 239
★ लोकप्रसिद्ध नियमों, जैसे
दातुन करना, जीभ की सफाई करना, कुल्ला करना,
काय-:
य - शुद्धि, वस्त्र - शुद्धि, द्रव्य - 3
एवं देश-स्नान करना आदि का यतनापूर्वक पालन करना | 240 अध्याय 5: शरीर-प्रबन्धन
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य-शुद्धि,
सर्व-स्नान
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