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★ अपवित्र शरीर से भोजन नहीं करना। * रजस्वला स्त्री के संसर्ग से दूर रहकर भोजन करना। ★ आहार समय पर करना, जिससे उसे पुनः गरम न करना पड़े। ★ न अधिक धीरे और न अधिक जल्दी आहार करना।195 ★ भोजन करते समय अन्न की निन्दा नहीं करना। ★ दोनों हाथ जूठे नहीं करना। ★ अतिशय रसलोलुपता के साथ भोजन नहीं करना। * जूठा खाना नहीं, जूठे मुँह बोलना नहीं एवं जूठा छोड़ना नहीं। ★ शरीर टेढ़ा-मेढ़ा करते हुए भोजन नहीं करना। ★ भोजन करते हुए सर-सर, चब-चब आदि शब्द नहीं करना। ★ भोजन करते हुए नीचे नहीं गिराना। ★ भोजन को अतिशय गर्म , ठण्डा, खारा, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा आदि करके नहीं खाना। ★ हँसते-हँसते या बोलते-बोलते नहीं खाना, यदि खाना श्वासनली में चले जाए, तो प्राण-घातक
भी हो सकता है।196 * प्रत्येक कवल को बत्तीस बार चबा-चबा कर खाना, जिससे आँतों पर दबाव न आए।197 ★ भोज्य सामग्रियों को मिलाकर नहीं खाना, जिससे राग का पोषण न हो एवं उन्हें पूरी तरह
चबाया जा सके। 198 * भोजन के पश्चात् दिवसचरिम अथवा सीमित समय के लिए भोजन का त्याग करना। ★ भोजन के पश्चात् इष्ट देव का स्मरण करके उठना और चैत्यवन्दन करना। ★ भोजन करने के ठीक बाद शरीर का मर्दन, मलमूत्र का त्याग, भारवहन, नहाना आदि कार्य
नहीं करना। * भोजन करने के पश्चात् सोना नहीं, सोना ही पड़े तो कम से कम सौ कदम अवश्य चलना। ★ भोजन के पश्चात् वाचनादि पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना।199 ★ भोजन के पूर्व पानी नहीं पीना, अन्यथा शरीर कृश होता है। * भोजन के मध्य में पानी पीने से शरीर न ही कृश होता है और न मोटा। * भोजन के अन्त में (थोड़ी देर के बाद) पानी पीने से शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है।200
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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