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प्रतिक्रमण श्वास की संख्या रात्रिक दैवसिक 100मा पाक्षिक 300 चातुर्मासिक 500 सांवत्सरिक 1008
BENERATORSDARIES
★ ध्यान की साधना नासाग्र दृष्टि से करना, जिससे पहले श्वास सन्तुलित होती है और तत्पश्चात्
घ्राण मस्तिष्क । जब घ्राण मस्तिष्क सन्तुलित होता है, तब भय, क्रोध आदि संवेग भी शान्त होने लगते हैं। जब भयादि संवेग शान्त होते हैं, तो श्वास-प्रक्रिया का और अधिक परिष्कार होता
है। इस प्रकार, ध्यान के काल में श्वास से भाव और भाव से श्वास का सम्बन्ध बनता है।11 * प्रातःकाल नंगे पैर मन्दिर जाना, जिससे भूमि के शीतल स्पर्श के साथ-साथ शुद्ध-वायु का
सेवन भी हो सके। * भोजन के समय पेट का एक निश्चित भाग (1/6 भाग) खाली रखना, जिससे वायु का
आवागमन यथोचित मात्रा में होता रहे। * यथावसर तीर्थयात्रा अथवा साधु-साध्वियों के समागम में पदविहार करना, जिससे शहर के __ प्रदूषित वातावरण से दूर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में रहने का अवसर मिल सके। ★ उद्गार (डकार), छींक, जम्भाई, अपान वायु के वेग को कभी भी नहीं रोकना, जिससे प्राणवायु
का संचरण चलता रहे और रोगोत्पत्ति न हो।12 * आवश्यकता हो तो प्राणायाम करना, लेकिन उसका लक्ष्य आत्मध्यान की पात्रता (भूमिका) का
विकास करना हो। इससे मन और तन दोनों के आरोग्य की प्राप्ति हो सकती है।213 ★ मन्दिर में धूप, चन्दन, दीपादि पूजा करना, घण्टनाद करना, जिससे आसपास का वातावरण
कीटाणुमुक्त रहे और शुद्ध वायु का सेवन भी होता रहे।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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