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प्राथमिक कार्य पहले करना (First Thing First)ss
इसका अर्थ है - सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सबसे पहले करना। इस आधार पर हम काम को निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। इसे जैनदर्शन में 'आवश्यक' (अवश्यकरणीय) की प्राथमिकता के द्वारा समझाया गया है। ★ तत्काल कार्य – ये कार्य सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, इन्हें सबसे पहले करना चाहिए। ऐसे कार्य
अत्यावश्यक या अपरिहार्य भी कहलाते हैं। कभी-कभी ये बहुत कम महत्त्वपूर्ण दिखाई देते हैं, फिर भी इन्हें अत्यावश्यक कहा जाता है, क्योंकि यहाँ महत्त्व का सम्बन्ध कार्य के परिणामों (Consequences) से है। ★ महत्त्वपूर्ण कार्य - ये कार्य आवश्यक तो हैं, किन्तु अत्यावश्यक नहीं हैं। इन्हें अत्यावश्यक कार्यों के बाद किया जाना चाहिए। इन्हें जैनदर्शन में आवश्यक कहा गया है। ये कार्य सामान्य व्यक्ति के उच्चतर जीवन-मूल्यों (आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक) के सम्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। जैनदर्शन में जैनाचार्यों के द्वारा व्यावहारिक आवश्यक कार्यों के साथ धार्मिक और आध्यात्मिक विकास हेतु आवश्यक षट्कर्त्तव्य – देव-पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान एवं षडावश्यक – सामायिक, चतुर्विंशति-स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान भी निर्देशित किए गए हैं, इन्हें जीवन के आवश्यक कर्त्तव्य मानकर समय-सारणी में अवश्य स्थान देना चाहिए। गृहस्थ एवं साधु – दोनों को षडावश्यक प्रतिदिन दो बार करने योग्य है। 1) सामायिक
आत्म-सजगता एवं समत्वभाव की साधना है।
3) वन्दना
गुरु एवं धर्म के प्रति विनय एवं आस्था की वृद्धि करना है। मतिकमण आलोचना दीपों का परिमार्जन है अति प्रभाकिया ही 5) कायोत्सर्ग
अहंकार और ममकार (ममत्व) का विसर्जन है।
★ अनावश्यक कार्य - ये कार्य गैर-महत्त्वपूर्ण हैं और नहीं करने योग्य हैं। इन्हें ही
जैनआचारशास्त्रों में 'अनर्थदण्ड' कहा गया है। साधारणतया ये कार्य व्यक्ति के कमजोर मनोनुशासन के परिणाम हैं, जिन्हें नहीं करके व्यक्ति समय का सुन्दर समायोजन कर सकता
प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका अलग-अलग होने से इन तीनों विभागों के अन्तर्गत किए जाने वाले कार्यों का स्पष्ट विभेद करना शक्य नहीं है, फिर भी किसी सामान्य व्यक्ति के लिए इनका प्रारूप इस प्रकार हो सकता है -
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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