________________
• उपवास (तिविहार) – सिर्फ उष्ण जल पीना।
• उपवास (चौविहार) – आहार-पानी का पूर्ण त्याग करना। 2) रात्रि सम्बन्धी तप
• दुविहार/तिविहार – सूर्यास्त के पश्चात् सिर्फ पानी का प्रयोग करना (रात्रि के प्रथम
प्रहर की समाप्ति के पूर्व तक)। • चौविहार – सूर्यास्त के पश्चात् आहार पानी का पूर्ण त्याग करना।
• पाणाहार - दिन में तपस्या करने पर सूर्यास्त के पश्चात् पानी का भी पूर्ण त्याग करना।
इन प्रत्याख्यानों का परिपालन कर व्यक्ति अपने जीवन को प्रबन्धित कर लेते हैं, परन्तु जो इनका पालन नहीं करते, उन्हें जैन-परम्परा में स्वेच्छाचारी माना जाता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार, जो लोग दिन-रात खाते ही रहते हैं, वे सींग और पूँछ रहित पशु के समान हैं।151 (घ) आहार कब करना - जैनाचार्यों के अनुसार, असमय में किया गया महान् कार्य भी निरर्थक हो जाता है, अतः शरीर-प्रबन्धन के लिए आहार के उचित काल का विवेक भी एक अनिवार्य आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित बिन्दु विचारणीय हैं -
* भूख लगने पर ही खाना।152 ★ प्रतिदिन नियत समय पर भोजन करना।153 ★ सुपात्रदान देने के पश्चात् ही खाना। 154 ★ अजीर्ण होने पर नहीं खाना।155 ★ मन शान्त हो, तभी खाना।156 ★ नींद से उठकर तुरन्त नहीं खाना।157 ★ शरीर में हल्कापन महसूस हो, तब खाना।158 ★ मल-मूत्र का वेग रोककर कभी नहीं खाना।159
★ बाहर से आने के बाद (कुछ समय) विश्राम करके भोजन करना।160 1) भोजन करने का उचित समय
उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि के सन्दर्भ में स्पष्ट कहा गया है कि मुनि दिन के तीसरे प्रहर में आहार ग्रहण करे।101 श्राद्धविधि प्रकरण में श्रावक के विषय में कहा गया है कि वह मध्याह्न में जिन-पूजा, सुपात्रदानादि करके ही भोजन करे।162
यद्यपि मध्याह्न में भोजन करने का निर्देश दिया गया है, तथापि उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर भोजन के उचित समय का निर्धारण करना चाहिए।
273
अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org