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इस प्रकार, भोजन कैसा हो, इस प्रश्न पर विचार करने पर तीन विकल्प सामने आते हैं146 - ★ कुछ लोग स्वाद के लिए भोजन करते हैं। ★ कुछ लोग स्वास्थ्य के लिए भोजन करते हैं। ★ कुछ लोग साधना के लिए भोजन करते हैं।
उपर्युक्त में से पहला विकल्प निकृष्ट है, दूसरा मध्यम है एवं तीसरा उत्कृष्ट है और शरीर-प्रबन्धन हेतु अनुकरणीय है। जैनदृष्टि के आधार पर शरीर–प्रबन्धन करते हुए आहार ऐसा लेना चाहिए, जिससे स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ आत्मा की प्राप्ति की साधना भी उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाए। कहा भी है – 'शरीर के लिए आहार मोक्षमार्ग की साधना का हेतु होना चाहिए।" (ग) आहार कितनी बार करना - जैनआचारशास्त्रों में उत्सर्ग यानि सामान्य रूप से प्रतिदिन एक बार ही भोजन करने (एकासणा) का निर्देश दिया गया है।148 यह नियम केवल मुनि की अपेक्षा से ही नहीं, अपितु गृहस्थ साधकों के लिए भी निर्दिष्ट है।149 स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इससे भोजन को पचने के लिए समुचित समय मिल जाता है।
__ अपवाद से जैनआचारशास्त्रों में बियासणा अर्थात् दो बार भोजन करने का निर्देश दिया गया है, आयुर्वेद में शतायु जीवन जीने के लिए कुछ मर्यादाओं का उल्लेख है, जिनमें से एक प्रमुख है - प्रतिदिन दो बार ही भोजन करना। 150 विशेष परिस्थिति में दो बार से अधिक भोजन की छूट भी जैन-परम्परा में दी जाती है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति दिन भर खाता ही रहे। जैनशास्त्रों में संयमित या प्रबन्धित आहार-शैली को अपनाने के लिए विविध तपस्याओं का वर्णन मिलता है, जैसे - 1) दिवस सम्बन्धी तप
• नवकारसी - सूर्योदय से 2 घड़ी (48 मिनिट) बाद तक नहीं खाना। • पोरिसी – सूर्योदय से एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे) बाद तक नहीं खाना। • साड्ढपोरिसी - सूर्योदय से डेढ़ प्रहर (लगभग 4.30 घण्टे) बाद तक नहीं खाना। • पुरिमड्ड – सूर्योदय से दो प्रहर (लगभग 6 घण्टे) बाद तक नहीं खाना। • अवड्ड - सूर्योदय से तीन प्रहर (लगभग 9 घण्टे) बाद तक नहीं खाना। • बियासणा - दिन में दो बार भोजन करना, पीने में उबाल कर ठंडे किए हुए जल का
उपयोग करना। एकासणा - दिन में एक बार भोजन करना, पीने में उबाल कर ठंडे किए हुए जल का उपयोग करना। आयम्बिल – षड्विगई के त्यागपूर्वक एकासणा करना। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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