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गया है, क्योंकि इनमें अपने ही वर्ण वाले असंख्य अदृश्य त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, जो विकारवर्धक तथा आत्मगुणों के घातक होते हैं।128 अतः शरीर–प्रबन्धन हेतु इनका उपयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ङ) अन्य पदार्थ - जैन-परम्परा में उपर्युक्त चार महाविगइयों के अतिरिक्त तामसिक प्रकृति वाले अन्य पदार्थों का उल्लेख भी मिलता है, जैसे – बैंगन, चलितरस आदि। बैंगन अधिक निद्राकारक एवं कामोद्दीपक होने से त्याज्य है।129 इसमें अत्यधिक बीज होते हैं, टोप में सूक्ष्म त्रस जीव होते हैं तथा यह पथरी एवं पित्तादिक रोगों का कारण भी बनता है। पुराणादि अन्य शास्त्रों में भी इसका निषेध किया गया है तथा इसे खाने वाले को मूर्ख कहा गया है। 130
जिस खाद्यवस्तु का स्वाभाविक रूप, रस, गन्ध, स्पर्श बिगड़ जाता है, उसे चलितरस कहा जाता है। यह भी त्यागने योग्य है, क्योंकि इसमें सड़न-गलन की प्रक्रिया (Fermentation) घटित होने से अनेक जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, इससे तामसिक वृत्तियाँ उद्दीप्त होती हैं, कभी-कभी तो यह प्राणनाशक विष (Food Poison) के समान कार्य करता है। जैनाचार्यों ने प्रत्येक पदार्थ की समय-मर्यादा का उल्लेख भी किया है, जिसके पश्चात् भक्ष्य पदार्थ चलितरस बन जाता है। कुछ चीजें, जैसे - रोटी. पराठा, सब्जी, भजिया, कचौरी, खीर, बंगाली मिठाई आदि एक रात बीतने पर ही चलितरस बन जाती हैं। कुछ चीजें, जैसे - आटा, खाखरा , चिवड़ा, सेव, मोतीचूर के लड्डु आदि कुछ दिनों (श्वेताम्बर मान्यतानुसार - ग्रीष्म में 20 दिन, शीत में 30 दिन, वर्षा में 15 दिन अधिकतम) के पश्चात् अभक्ष्य हो जाती हैं तथा अन्य कुछ चीजें, जैसे - पापड़, बड़ी आदि कुछ महीनों के पश्चात् चलितरस बन जाती है।131 शरीर के सम्यक् प्रबन्धन के लिए निर्धारित समय-सीमा के पश्चात् इनका उपयोग नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार, वे सभी तामसिक वस्तुएँ जो व्यक्ति को उदासीन, प्रमादी एवं कामी बनाने में सहायक होती हैं, उन्हें जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक एवं शारीरिक दृष्टि से त्यागने योग्य कहा है। यह शरीर के सम्यक प्रबन्धन के लिए आवश्यक है। 2) जैनाचार्यों के द्वारा सीमित मात्रा में अनुमत राजसिक आहार
जैन आहार संहिता का यह दूसरा बिन्दु है। जिस आहार के सेवन से व्यक्ति की गतिशीलता एवं क्रियात्मकता की अभिवृद्धि होती है, उसे राजसिक आहार कहते हैं। यह आहार सीमित मात्रा में सेवन किया जाए, तो जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक बल प्रदान करता है, किन्तु यदि आवश्यकता से अधिक मात्रा में सेवन किया जाए, तो यह अनावश्यक उत्तेजनाओं एवं व्याधियों का कारण भी बनता है। सामान्यतया यह दुष्पाच्य होता है, इसे पचाने में अधिक समय (लगभग पाँच घण्टे) लग जाते हैं। 132 यह दिखने में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट होता है, इसलिए प्रायः अतिमात्रा में इसका सेवन हो जाया करता है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के तेज मिर्च-मसालेदार, खट्टे-मीठे, चटपटे, नमकीन,
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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