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औदारिक-शरीर स्थूल परमाणुओं से बनता है, जिसमें हाड, मांस, रक्तादि होते हैं। यह मनुष्य एवं तिर्यंच (पशु-पक्षी आदि) को प्राप्त होता है। उदार या स्थूल परमाणुओं से बना होने से इसे औदारिक कहा जाता है। वैक्रिय-शरीर औदारिक की अपेक्षा सूक्ष्म होता है, इसमें हाड, मांसादि का अभाव होता है। यह छोटा-बड़ा, एक-अनेक, विविध एवं विचित्र रूप बनाने की योग्यता रखता है और इन विशेष क्रियाओं को करने में समर्थ होने के कारण ही इसे वैक्रिय कहा जाता है। यह शरीर सामान्यतया देव एवं नारकी जीवों को प्राप्त होता है। आहारक-शरीर अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म होता है, इसका परिमाण एक हाथ जितना होता है। यह शरीर किसी-किसी विशेषज्ञानी एवं ऋद्धिधारी मुनिराज को ही प्राप्त होता है, परन्तु वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में इसका अभाव है। तैजस-शरीर सूक्ष्मतर परमाणुओं से निर्मित शरीर है, इसका कार्य आहार को पचाना, शरीर के निर्माण एवं विकास में सहयोग देना आदि है। यह अतिसूक्ष्म होने से इन्द्रियगोचर नहीं होता है। पाँचवा शरीर कार्मण-शरीर है, जो सूक्ष्मतम होता है और कर्मवर्गणा के पुद्गलों से बनता है। वस्तुतः, यह जैनदर्शन में निर्दिष्ट आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों का समूह होता है। यही वह शरीर है, जो अन्य चारों शरीरों का मूल आधार है। इसके प्रभाव से जीव को अन्य शरीरों की प्राप्ति होती रहती है।
__ 'शरीर–प्रबन्धन', इस विषय का सम्बन्ध मानव-जीवन से है, अतः इस अध्याय की मुख्य विषयवस्तु औदारिक मानवीय शरीर का प्रबन्धन करना है तथा गौणरूप से तैजस एवं कार्मण शरीर भी इससे सम्बद्ध है। (1) शरीर का संयोग - क्यों और कैसे?
____ जैनाचार्यों के अनुसार, जीवन के दो मुख्य रूप हैं – संसारी एवं मुक्त। शरीरसहित जीवनरूप को संसारी एवं शरीररहित जीवनरूप को मुक्त जीवन कहते हैं।
संसारी आत्माएँ सतत परिभ्रमण करती रहती हैं और एक शरीर का त्याग करते ही दूसरे शरीर को धारण कर लेती हैं। यदि शरीर की प्राप्ति न हो, तो सभी आत्माएँ मुक्त दशा को प्राप्त कर लें, परन्तु ऐसा नहीं हो पाने का मूल कारण है – आत्मा के शुभाशुभ भावों से अर्जित कार्मण-शरीर ।
संसारी आत्माएँ प्रतिक्षण राग, द्वेष एवं मोह भावों से ग्रसित होती रहती हैं, जिससे इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए वे मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति करती हैं जिन्हें जैनशास्त्रों में 'योग' कहा जाता है। इन योगों से ही शुभ-अशुभ कर्मों का बन्धन होता रहता है, जो कालक्रम से फल देकर झड़ जाते हैं, इन्हीं कर्मों के फलस्वरूप आत्मा का शरीर से संयोग होता है।
कर्मग्रन्थ के अनुसार, ये कर्म आठ प्रकार के होते हैं' – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय , मोहनीय, अन्तराय, आयुष्य , नाम, गोत्र एवं वेदनीय। इनमें से अन्तिम चार का सम्बन्ध शरीर आदि बाह्य संयोगों की प्राप्ति से है। आयुष्य-कर्म से एक निश्चित अवधि तक शरीर एवं आत्मा का नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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