________________
अध्याय 5
शरीर-प्रबन्धन (Body Management)
5.1 शरीर का स्वरूप
शरीर जीवन का आधार है, जिसके बिना किसी भी संसारी प्राणी का अस्तित्व ही नहीं होता। अतः व्यक्तित्व के इस महत्त्वपूर्ण घटक के सम्यक् स्वरूप को समझने की जिज्ञासा सदाकाल से ही मनुष्य में रही है। प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में इसीलिए शरीर-विज्ञान की विविध शाखाओं
और उनसे सम्बन्धित ग्रन्थों की रचना कालक्रम से होती रही है। प्रस्तुत प्रसंग में हम जैन विचारधारा सह आधुनिक शरीर-विज्ञान की चर्चा करेंगे।
'शरीर' शब्द सामान्यरूप से बहुप्रचलित है, फिर भी स्पष्टता की दृष्टि से इसके पर्यायवाची शब्दों को समझना भी जरुरी है। शरीर के समानार्थी शब्द हैं - इन्द्रियायतन, अंगविग्रह, क्षेत्र, गात्र, तनु, भूघन, तन, मूर्त्तिमान् , करण, काय, मूर्ति, वेर, देह, संचर, घन, बन्ध, पुर, पिण्ड, वपु, पुद्गल, वर्म, कलेवर आदि। 5.1.1 जैन शरीर-विज्ञान
जैनाचार्यों के अनुसार, किसी भी प्राणी (जीव या आत्मा) की पहचान उसके शरीर की रचना के आधार पर होती है। शरीर के अनेक रूप होते हैं, जिन्हें जैनशास्त्रों में जीवों के 563 भेदों के रूप में दर्शाया गया है। जीवों का वर्गीकरण करने के लिए इन शास्त्रों में उन्हें प्राप्त गतियाँ, इन्द्रियाँ, पर्याप्तियाँ, प्रजातियाँ आदि अनेक पहलुओं को आधारभूत माना गया है। ये सभी आधार मूलतः शरीर की ही विविध विशेषताएँ हैं। अतः कहा जा सकता है कि जीवन की सूक्ष्म विवेचना के लिए किसी भी प्राणी की शारीरिक संरचना को जानना अत्यावश्यक है, क्योंकि जैनधर्म में शारीरिक-संरचना का साधना से निकटतम सम्बन्ध माना गया है।
प्रत्येक प्राणी की शारीरिक संरचना भिन्न-भिन्न होती है। जैनदर्शन में शरीर के पाँच प्रकार माने
★ औदारिक
* वैक्रिय
★ आहारक
* तैजस
★ कार्मण
227
अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org