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अर्थात् यह मान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि शरीर मलयुक्त है और भोजन एवं वस्त्रों को अपवित्र बनाने वाला है, क्योंकि यह सर्वदुःखों से मुक्तिरूप परमकल्याणकारी मोक्ष लक्ष्य की प्राप्ति कराने वाला श्रेष्ठ साधन है। मानव-शरीर की प्रमुख विशेषताएँ
मानव-शरीर की ऐसी अनेक विशिष्टताएँ हैं, जो इसके महत्त्व को और अधिक स्पष्ट करती
(1) दुर्लभता - 'दुल्लहे खलु माणुसे भवे' अर्थात् संसार में मानव-जीवन की प्राप्ति निश्चय ही अतिदुर्लभ है। इसकी दुर्लभता ही इसके महत्त्व को कई गुणा बढ़ा देती है। कहा गया है कि जीवन का सबसे निकृष्ट एवं अविकसित रूप 'निगोद' का होता है, जिसमें अनन्त काल तक जीव बारम्बार जन्म-मरण करता रहता है। यह जीवन इतना अल्प होता है कि एक श्वासोच्छ्वास में साढ़े सत्रह बार जन्म-मरण हो जाता है। इस निगोद अवस्था से निकल जाने पर भी जीव की स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवनरूपों में सुदीर्घकाल तक जन्म-मरण करना पड़ सकता है, उसके लिए त्रस होना दुर्लभ है। त्रस होने पर भी पंचेन्द्रिय अवस्था की प्राप्ति होना, पंचेन्द्रिय होने पर भी विकास योग्य पर्याप्तियों से पूर्ण होना, पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर भी मनसहित होना और मनसहित होने पर भी दीर्घायुषी मनुष्य-जीवन मिलना अतिदुर्लभ है। इस प्रकार, अनेकानेक योनियों में परिभ्रमण करने के बाद भी मनुष्य-जीवन की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है।
कदाचित् पूर्वजन्मों के सुसंस्कारों, कषायों की मन्दता, प्रकृति की भद्रता और विनम्रता, दयालुता और सहृदयता तथा मत्सर-भाव (पर-गुण असहिष्णुता) न रखने से मनुष्य-जीवन की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि जीवों के लिए चार दुर्लभताएँ हैं और इनमें सर्वप्रथम है - मनुष्यत्व की प्राप्ति।
भारतीय संस्कृति के महान कवियों ने भी अनेक प्रकार से मानव-जन्म की दुर्लभता को दर्शाया है, जैसे -
बेर-बेर नहीं आवे, अवसर बेर-बेर नहीं आवे । ज्यु जाणे त्यु करले भलाई, जन्म-जन्म सुख पावे।।
अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी" मनीषा जनम दुर्लभ है, देह न बारम्बार । तरवर थें फल झड़ि पड्या, बहुरि न लागें डार।।
- कबीर
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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