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बड़े भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा। साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
- रामचरित मानस बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्यो। तोये अरे भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्यो।।
- श्रीमद्राजचन्द्र (2) योग्यता - जैनदर्शन के अनुसार, मानव-शरीर में जीवनलक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अतिविकसित तन्त्र हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य वातावरण का ज्ञान कराती हैं। मन जटिल से जटिल विषयों पर भी चिन्तन, मनन, निर्णय, स्मरण आदि करके ज्ञान को व्यापक बनाता है तथा भावनाओं एवं संवेगों को प्रसारित करने में भी प्रमुख सहयोगी सिद्ध होता है। आज मनुष्य की भौतिक प्रगति का मूल भी मन ही है। हाथ-पैर, वाणी आदि शारीरिक अंग भी जीवन की क्रियाशीलता के परिचायक हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक भी मनुष्य-जीवन की योग्यता को विशेष प्रकार से प्रतिपादित करते हैं। उनके अनुसार, संसार के समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक विकसित प्राणी है, क्योंकि यह बहुकोशिकीय (Multicellular) संरचना वाला और अतिविकसित स्नायुतन्त्र, अन्तःस्रावीग्रन्थितन्त्र, पाचनतन्त्र, श्वसनतन्त्र आदि से युक्त है। डार्विन की विकासवादी मान्यता के अनुसार, अमीबा से क्रमशः स्पंज, हाइड्रा और फिर विभिन्न बाधाओं को पार करता हुआ मछली, मेंढक, साँप, छिपकली, चिड़िया, हाथी, बन्दर आदि जीवन रूप विकसित होते-होते अन्त में मनुष्य बना। स्पष्ट है कि मानव-शरीर सर्वोच्च जीवनरूप है। (3) उपयोगिता - मानव-जीवन की महत्ता का तीसरा पहलू है - इस जीवन की उपयोगिता। सामान्य सिद्धान्त है कि वस्तु की उपयोगिता ही उसके महत्त्व को द्योतित करती है। मानव-शरीर की यह विशिष्टता है कि उसमें जीवन-विकास या जीवन-प्रबन्धन की अदभुत क्षमताएँ विद्यमान हैं। कहा गया है - 'धर्मार्थकाममोक्षाणाम् मूलमुक्तं कलेवरं'52 अर्थात् धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति का मूल साधन शरीर ही है। जीवन का लक्ष्य व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक, मानव-शरीर के बिना समुचित ढंग से लक्ष्यपूर्ति नहीं की जा सकती।
अर्थ और काम में मानव-शरीर का उपयोग करना तो सामान्य बात है, परन्तु जैनाचार्यों ने धर्म और मोक्ष के लिए भी मानव-शरीर की महत्त्वपूर्ण भूमिका को प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार, मनुष्य-जीवन की सार्थकता तभी है, जब व्यक्ति इस शरीर में रहते हुए सांसारिक प्रपंचों से विरक्त होकर आत्मश्रेय के मार्ग में लग जाए एवं अन्ततः सत्कार्यपूर्वक (शुद्धभावपूर्वक) शरीर का त्याग करे। वे कहते हैं कि आहारादि प्रवृत्तियाँ तो हर शरीर में सुलभ है, परन्तु सद्धर्म का श्रवण, उस धर्म पर यथार्थ श्रद्धा तथा आत्म-संयम में पराक्रम का होना मनुष्य-शरीर में रहते हुए ही सम्भव है। यह
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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