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आधुनिक शरीर-विज्ञान के अनुसार, शरीर की सभी कोशिकाओं, ऊतकों, अंगों एवं तन्त्रों का व्यवस्थित रूप से कार्य करते रहना ही स्वस्थता है। 105 प्राचीन संस्कृति के अनुसार, अस्थि-संस्थान का अच्छा होना ही स्वस्थता है। कहा भी गया है – “सुष्टु अस्थि अस्ति यस्य सः स्वस्थः' अर्थात् जिसकी अस्थियाँ मजबूत और शक्तिशाली होती हैं, वह स्वस्थ है तथा जिसकी पृष्ठ-रज्जु मुड़ी हुई है, तिरछी है, वह अस्वस्थ है 106 और भी, 'स्वस्मिन् तिष्ठति इति स्वस्थः' अर्थात् जो शरीर अपने स्वाभाविक रूप में स्थित है यानि विकाररहित है, वह स्वस्थ है।
उपर्युक्त सभी सन्दर्भो का सार यही है कि शरीर के सभी अंगों का रोगरहित होना और अपने-अपने कार्यों का निर्वाह करने में समर्थ होना ही स्वस्थता है। इस स्थिति में शारीरिक रसायनों का विकास सन्तुलित होता है। (2) स्फूर्ति – यहाँ स्फूर्ति का अर्थ शारीरिक चुस्ती अर्थात् कार्य के प्रति तत्परता एवं सजगता से है। स्फूर्तिवान् व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि वह किसी भी कार्य को उचित ढंग से सम्पन्न करने के साथ-साथ अल्प समय में ही पूर्ण कर लेता है। स्वस्थता के साथ-साथ स्फूर्ति होना भी शारीरिक-विकास का अनिवार्य पहलू है। जैनकथानकों में गौतम स्वामी का उदाहरण प्रसिद्ध है, जो अष्टापद पर्वत के उच्च शिखर पर अल्पसमय में ही चढ़ गए। (3) सौन्दर्य (लावण्य) – जीवन-प्रबन्धन में शारीरिक-विकास का यह तीसरा पहलू है, जिसका सम्बन्ध शरीर के बाह्य अंगों की आकृति एवं कान्ति से है।107 यद्यपि जीवन के अन्य विकास का इससे कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, तथापि दुनिया के अधिकांश लोगों की दृष्टि में अपने शरीर का सौन्दर्य ही सर्वोपरि है, अतः लोक-व्यवहार की दृष्टि से इसे शारीरिक विकास के अन्तर्गत ग्रहण करना आवश्यक है। ___इस प्रकार, स्वस्थता, स्फूर्ति एवं सौन्दर्य – इन तीनों पहलुओं पर आधारित शारीरिक-विकास ही शरीर-प्रबन्धन का उद्देश्य है।
जैनाचार्यों ने लापरवाहीवश बीमार पड़ने एवं उपचार कराने की अपेक्षा प्रबन्धित जीवनशैली अपनाकर स्वस्थ रहने को अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जिस व्यक्ति की जीवनशैली में हिताहार, मिताहार एवं अल्पाहार जैसे गुण विद्यमान हों, उसे किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे स्वयं ही स्वयं के चिकित्सक होते हैं। 108 अतः आगे, जैनदर्शन के आधार पर सम्यक् जीवनशैली से सम्बन्धित सिद्धान्तों की चर्चा की जा रही है। 5.4.3 प्रबन्धित जीवनशैली के मुख्य आयाम
मेरी दृष्टि में, सम्यक् शरीर-प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित आयाम अपेक्षित हैं। पूर्व में इन सभी आयामों में फैली विसंगतियों की चर्चा की गई थी, अतः प्रस्तुत प्रकरण में जैनदृष्टि के आधार पर इनके सुसंगत समाधानों की चर्चा की जा रही है।
अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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