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5.4 जैनआचारमीमांसा के आधार पर शरीर-प्रबन्धन
__ जैनदर्शन मौलिकरूप से स्वास्थ्य और चिकित्सा का दर्शन नहीं है, यह तो आत्मा से आत्मा का दर्शन है। परन्तु जैनदर्शन एक अनेकान्तदर्शन भी है, जिसमें ज्ञान की दो शाखाओं के बीच में लक्ष्मण-रेखा नहीं खींची जा सकती। अतः, सापेक्षदृष्टि से देखें, तो जैनदर्शन में आत्मदर्शन के साथ-साथ स्वास्थ्य-दर्शन भी समाहित हो जाता है।
जैनदर्शन के अनुसार, जब तक आत्मा मुक्त नहीं हो जाती, तब तक आत्मा शरीर के बिना नहीं रह सकती और शरीर की उपेक्षा कर आत्मशुद्धि हेतु साधना भी नहीं की जा सकती। जैनाचार्यों की दृष्टि में शरीर का महत्त्व आत्मसाधना के लिए है, इन्द्रियों के विषय-भोगों के लिए नहीं। इनका चिन्तन मुख्यतया आत्मा को केन्द्र में रखकर हुआ है, परन्तु इन्होंने शरीर के निर्वाह के लिए सम्यक् जीवनशैली का जो कथन किया, वह स्वतः मानवजाति के स्वास्थ्य का मौलिकशास्त्र बन गया। यही शास्त्र शरीर के सम्यक् प्रबन्धन के लिए आधारभूत है।98
जैनदृष्टि के आधार पर शरीर का सम्यक् प्रबन्धन करने के लिए हमें इस प्रक्रिया को दो पक्षों में विभक्त करना होगा - सैद्धान्तिक पक्ष एवं प्रायोगिक पक्ष। इन दोनों पक्षों का अपना-अपना महत्त्व है, फिर भी प्राथमिकता की दृष्टि से सैद्धान्तिक पक्ष का महत्त्व अधिक है और इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में सैद्धान्तिक पक्ष का वर्णन पहले किया जा रहा है। 5.4.1 शरीर के प्रति सही दृष्टिकोण का विकास
शरीर के सम्यक् प्रबन्धन के लिए इस बात का विशेष महत्त्व है कि व्यक्ति शरीर को किस दृष्टिकोण से देखता है। यही भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति के बीच की भेदरेखा भी है। पाश्चात्य-संस्कृति में शरीर को ही सर्वस्व माना गया है, जबकि भारतीय संस्कृति में शरीर को एक यंत्र (Machine) के रूप में स्वीकारा गया है। आयुर्वेद में कहा गया है - शरीर रथ के समान है।99 जैनदर्शन में भी कहा गया है – शरीर नौका के समान है।100 एतरेय आरण्यक में भी कहा गया है - यह शरीर दैवीय वीणा के समान है।101 कबीर के अनुसार भी शरीर वाद्य-यंत्र के समान है। 102 चाहे रथ कहें या नौका, वीणा कहें या अन्य कुछ, आशय इतना ही है कि शरीर मूलतः यंत्र के समान है। शरीर-प्रबन्धन के लिए शरीर को यंत्र के समान अनुभूत करना एक अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि इससे शरीर-प्रबन्धन करना अतिआसान हो जाता है और मेरी दृष्टि में, जीवन-प्रबन्धन हेतु निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं -
★ यंत्र के प्रबन्धन के समान ही शरीर का प्रबन्धन भी करना चाहिए। ★ जैसे यंत्र से यंत्री भिन्न होता है, वैसे ही शरीर से आत्मा (स्व) को भिन्न मानना चाहिए। ★ यंत्र के समान ही शरीर को क्रियाशील बनाए रखने के लिए आहार, पानी, प्राणवायु आदि
आवश्यक तत्त्व (ईन्धन) उपलब्ध कराना चाहिए।
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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