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( 4 ) आहार कहाँ हो? आज अधिकांश लोग घर में भोजन करना कम पसन्द करते हैं और होटलों में ज्यादा। वे सोच ही नहीं पाते कि होटलों में न तो शुद्धि का ख्याल रखा जाता है और न ही पौष्टिकता का, वहाँ तो आर्थिक लाभ ही मुख्य होता है। इसी प्रकार, कई लोग पान, चाय, चाट, कचौरी आदि के ठेलों पर ही खाते हुए दिखाई देते हैं । अवकाश के दिन तो घरों में प्रायः भोजन ही नहीं बनता, बल्कि किसी न किसी रेस्त्रां, मॉल या पार्टी आदि में जाने का कार्यक्रम पूर्वनियोजित रहता है। शहरों में व्यक्ति दूर-दूर तक सिर्फ इन शौकों को पूरा करने के लिए जाता है।
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जहाँ सामूहिक भोज होता है, वहाँ अक्सर शुद्धि - अशुद्धि एवं हिंसा - अहिंसा का विवेक रख पाना सम्भव नहीं होता, अतः जैन - परम्परा में व्रतियों को इन स्थानों पर भोजन करना निषिद्ध है। जैनआचार प्रतिपादित यह पद्धति शरीर - प्रबन्धन के लिए अनिवार्यरूप से आचरणीय है I
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( 5 ) आहार कितना हो? सम्यक् शरीर - प्रबन्धन के लिए आहार की मात्रा मर्यादित होना जरुरी है, किन्तु आज लोगों में इसकी सही समझ ही नहीं है। वे शारीरिक ऊर्जा की आवश्यकता के आधार पर भोजन नहीं करते, बल्कि तब तक खाते रहते हैं, जब तक पेट भर नहीं जाता। ऐसे लोग पेट को पेटी के समान ठूंस-ठूंस कर भरते जाते हैं ।
किशोरावस्था से वृद्धावस्था में आने पर भी लोगों की आहार सम्बन्धी आवश्यकता कम होने के बजाय यथावत् बनी रहती है। अधिकांश लोगों की यह भ्राँति है कि जितना अधिक खाएंगे, शरीर उतना ही अधिक हृष्ट-पुष्ट होगा, कई स्वादलोलुपी इसीलिए राजसिक एवं तामसिक आहार का अति सेवन कर शरीर के प्रबन्धन को बिगाड़ लेते हैं। निश्चित रूप से यह शरीर - प्रबन्धन की सही प्रक्रिया नहीं है।
इन लोगों के लिए जैनाचार्यों ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि स्निग्ध, गरिष्ठ एवं अतिमात्रा में आहार प्राणघातक विष के समान है, अतः मर्यादित आहार करके शरीर का सम्यक् प्रबन्धन करना चाहिए ।"
इसी प्रकार, आहार सम्बन्धी अनेक विकृतियाँ आज देखी जाती हैं खड़े-खड़े खाना, बिना चबाए खाना, मसालेदार खाना, मानसिक उद्वेग के साथ खाना, टी.वी. देखते हुए खाना, बातचीत करते हुए खाना इत्यादि । ये विसंगतियाँ भी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिकूल ही हैं ।
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आगे, जैन विचारकों के आधार पर इन सभी आहार सम्बन्धी विकृतियों से मुक्त होने के उपायों की चर्चा की जाएगी।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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