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जैन-परम्परा में ऐसे अनेक मार्गदर्शन दिए गए हैं, जिन्हें दैनिक जीवन में आत्मसात् कर व्यक्ति शुद्ध वायु का सेवन कर सकता है और इस तरह शरीर–प्रबन्धन भी कर सकता है, जैसे – प्रातःकाल देवालय गमन, समय-समय पर प्राकृतिक स्थलों पर निर्मित तीर्थों की यात्रा, साधु-साध्वी की निश्रा में पदविहार इत्यादि।
इस प्रकार, शरीर-प्रबन्धन के अन्तर्गत शुद्ध वायु की प्राप्ति कब की जाए, कहाँ की जाए, किस प्रकार से श्वास नियमित एवं पूर्णरूप से ली जाए आदि प्रश्नों का सम्यक् समाधान अपेक्षित है। जैनदृष्टि से इनका उपयुक्त समाधान आगे किया जाएगा। 5.3.4 श्रम–विश्राम सम्बन्धी विसंगतियाँ
जीवन में श्रम और विश्राम का सन्तुलन अत्यावश्यक है। शरीर एक यंत्र के समान है, इसके अवयवों को सक्रिय रखने के लिए श्रम जरुरी है, परन्तु जब ये अवयव थक जाते हैं, तो इन्हें उचित विश्राम देना भी जरुरी है।
सम्यक् शरीर-प्रबन्धन के ज्ञान के अभाव में आज कई लोग शारीरिक श्रम से जी चुराते हैं, कई लोग शारीरिक श्रम को अपने से निम्न स्तर के लोगों का कर्तव्य मानते हैं और कई लोग सुविधा एवं विलासिता के साधनों को छोड़ना नहीं चाहते। इस आलस्य और प्रमाद के कारण अनेक रोग उत्पन्न हो रहे हैं, जैसे – मोटापा, हृदयरोग, मधुमेह, मांसपेशियाँ सख्त होना, बवासीर, वातरोग इत्यादि ।
इसी प्रकार, कई लोग विश्राम को अपने जीवन की प्रगति में बाधक मानते हैं। महत्त्वाकांक्षाओं के चलते वे जीवन की प्रतिस्पर्धाओं में पिछड़ना नहीं चाहते, अतः दिन-रात परिश्रम करते रहते हैं, परन्तु यह भी उचित नहीं है। इससे शरीर की कार्यकुशलता कमजोर हो जाती है, शक्ति क्षीण हो जाती है, स्नायुतन्त्र शिथिल हो जाता है तथा कई प्रकार के रोगों से शरीर आक्रान्त हो जाता है, जैसे - रक्त की कमी, प्रतिरोधक क्षमता की कमी, इन्द्रियों की शिथिलता, पाचनतन्त्र की कमजोरी इत्यादि ।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो श्रम एवं विश्राम दोनों करते हैं, लेकिन व्यवस्थित ढंग से नहीं करते। प्रायः देखने में आता है कि जो लोग सुबह-सुबह अपने घरों की छत पर या उद्यानों में टहलते हुए दिखाई देते हैं, वे भी कार्यवश थोड़ी दूर जाने के लिए वाहन को जरुरी समझते हैं। जो लोग घर में या जिम्नेशियम में शरीर को चुस्त रखने के लिए व्यायाम करते हैं, वे ही लोग दिनभर छोटे-छोटे कामों के लिए भी नौकर-चाकर पर आश्रित होकर जीते हैं। शरीर-प्रबन्धन की अपेक्षा से यह जीवन-व्यवहार भी उचित नहीं है।
जीवन में श्रम-विश्राम का सन्तुलन कैसे हो? इसकी चर्चा जैनदृष्टि के आधार पर आगे की जाएगी।
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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