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समय पर करने योग्य है, उसे उसी समय पर करना चाहिए - काले कालं समायरे। इसे ही समय-प्रबन्धन कहते हैं।
जैनआचारमीमांसा में समय-प्रबन्धन के दो पक्ष बताए गए हैं - सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक। सैद्धान्तिक पक्ष के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि समय-प्रबन्धन की आवश्यकता क्यों है? वस्तुतः, जैनाचार्यों की दृष्टि में, मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ और अतिदुर्लभ है। इसके सीमित समय का सम्यक् उपयोग नहीं किया, तो यह महासमुद्र को तैरकर किनारे पर डूबने जैसा है। सैद्धान्तिक पक्ष के माध्यम से यह मार्गदर्शन भी मिलता है कि समय-प्रबन्धन के आशय को भिन्न-भिन्न तरीकों से समझा जा सकता है, जैसे – उचित समय पर उचित कार्य करना, न्यूनतम समय में अधिकतम लाभ प्राप्त करना एवं वर्तमान क्षण का सर्वोत्तम उपयोग करना।
समय-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष को जीवन-प्रयोग में लाना भी नितान्त आवश्यक है। इस हेतु व्यक्ति को विविध कार्य करना चाहिए, जैसे – सही उद्देश्य का निर्माण, सही लक्ष्यों एवं नीतियों का निर्माण, सही कार्यसूची बनाना, सही समय-सारणी बनाना, उचित व्यक्ति को उचित कार्य सौंपना, कार्य का सही क्रियान्वयन करना, समय की बर्बादी से बचना एवं कार्यों पर सम्यक् नियन्त्रण करना। इस प्रकार, जैनआचारमीमांसा पर आधारित समय-प्रबन्धन के सिद्धान्तों का प्रयोग कर व्यक्ति मानव-जीवन के ध्येय की प्राप्ति करने में सफल हो सकता है।
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अध्याय 4: समय-प्रबन्धन
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