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श्रीमद्राजचंद्र ने कहा है मान आदि महाशत्रुओं से उत्पीड़ित शिष्य स्वप्रयासों से अनन्तकाल में भी मुक्त नहीं हो सकता, किन्तु मात्र सद्गुरु की शरण में जाने पर अल्पसमय एवं अल्पप्रयत्नों से ही मुक्त हो जाता है। यह सद्गुरु के सहयोग (निमित्त ) से प्राप्त ज्ञान का परिणाम है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि शिष्य का गुरु के प्रति कोई दायित्व नहीं है । शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह गुरुजनों की उचित वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूषा) करे। शिष्य के बारे में कहा गया है 'वह सूर्योदय होने पर हाथ जोड़कर गुरुजनों से पूछे कि हे भन्ते ! इस समय मैं क्या करूँ? हे भदन्त ! मैं चाहता हूँ अपनी आत्मा को आपकी वैयावृत्य में अथवा स्वाध्याय में नियुक्त करूँ । ' इस प्रकार शिष्य में सहयोग देने और सहयोग लेने की उत्तम नीति होनी चाहिए। यह परस्पराश्रितता का व्यावहारिक रूप है ।
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भगवान् महावीर और उनके पूर्व भी प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में विविध कार्यों के लिए सकल साधुसंघ को अलग-अलग 'गणों' में विभाजित करने की परम्परा रही है। इन गणों के कार्यों का सम्यक् संचालन करने हेतु असाधारण प्रतिभाशाली श्रेष्ठ मुनिराजों को दायित्व सौंपते हुए उन्हें 'गणधर’ पद से विभूषित किया जाता था। आज भी जैनसंघ को अनुशासित करने हेतु आचार्य, उपाध्याय, पंन्यास, गणि आदि पद एवं तत्सम्बन्धी कार्य सौंपने की परम्परा है। वस्तुतः यह प्रक्रिया सिर्फ साधुसंघ के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र को समयोचित कर्त्तव्य निभाने के लिए सर्वत्र आवश्यक है और यही सामूहिकता की भावना अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की सफलता का राज है ।
दायित्व - विभाजन की जैन पौराणिक - कथा"
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राजगृह नगरी में धन सार्थवाह रहता था । घर-परिवार का उत्तरदायित्व सौंपने हेतु उसने अपनी चारों पुत्रवधुओं को योग्यता - परीक्षणार्थ पाँच-पाँच दाने शालीकण (चावल) के दिए और माँगने पर लौटाने को कहा।
पहली पुत्रवधू 'उज्झिता' ने निरर्थक जानकर उन्हें फेंक दिया, दूसरी पुत्रवधू ‘भोगवती’ ने फेंका तो नहीं, लेकिन खा लिया, तीसरी पुत्रवधू रक्षिता' ने पिताजी की बात को सम्मान देकर उन्हें सम्भालकर रख लिया और चौथी पुत्रवधू 'रोहिणी' ने अपने पीहर भेजकर कृषि द्वारा संवर्द्धित करने का निर्देश दिया ।
पाँच वर्ष बीत जाने पर सेठ ने चारों पुत्रवधुओं से दाने वापस माँगे । सच्चाई जानने पर पहली पुत्रवधू को घर की सफाई आदि का कार्य सौंपा, दूसरी को रसोई आदि की व्यवस्था नियुक्त किया, तीसरी पुत्रवधू को घर - भण्डार की सुरक्षा का दायित्व दिया ।
चौथी पुत्रवधू से पूछने पर उसने कहा कि दाने वापस करने हेतु उसे कई गाड़ियों की आवश्यकता है, सेठ आश्चर्य चकित हो गया। उसके पूछने पर 'रोहिणी' ने सारा वृत्तान्त सुनाया । सेठ ने प्रसन्न होकर उसे घर का मुखिया बना दिया। इस प्रकार, उचित व्यक्ति को उचित कार्य सौंपने का यह एक आदर्श उदाहरण है।
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अध्याय 4: समय-प्रबन्धन
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