________________
का विषय नहीं बन पाता।
शिक्षा-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति एकाग्रचित्त एवं आग्रहरहित होकर वाचना ले (Listen attentively without bias), फिर जाने हुए विषय के अस्पष्ट पहलुओं का निराकरण करे, शान्तचित्त होकर जाने हुए विषय के अवचनीय पहलुओं (Unexpressable facts) को समझे, बारम्बार पुनरावर्तन कर उन्हें कण्ठस्थ करे तथा अन्यों से वार्तालाप के द्वारा ज्ञान को व्यापक बनाए।
यह स्वाध्याय-पद्धति शिक्षा-प्रबन्धन के क्षेत्र में जैनाचार्यों का अमूल्य अवदान है। 3.7.3 अनुप्रेक्षा से अनुभूति तक
जिस तरह से छाछ को मथकर मक्खन की प्राप्ति की जाती है, उसी प्रकार से जाने हुए विषय की अनुप्रेक्षा करके उसके सारभूत तत्त्वों की अनुभूति की जाती है और वह चिरकाल तक बनी रहती है। जैनाचार्यों ने इसीलिए अनुप्रेक्षा का विशेष महत्त्व बताया है। अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत चिन्तन, मनन, निर्णय, समझ का क्रमशः विकास किया जाता है और अन्ततः तत्त्वों की तलस्पर्शी अनुभूति तक पहुँचा जाता है। यह ज्ञान भावों की स्पर्शना करता है और मानसिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास का माध्यम बनता है। जैनकथानकों में अनुप्रेक्षा से तत्त्वानुभूति तक पहुँचने के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं -
___ 1) चिलातीपुत्र उपशम, विवेक एवं संवर - इन तीन शब्दों का अनुचिन्तन कर परमात्मा बने । 2) अतिमुक्तक मुनि ईर्यापथिक क्रिया (गमनागमन की आलोचना) की अनुप्रेक्षा करते-करते परमात्मा हुए। 3) शिवभूति (माषतुष) मुनि ज्ञान की अल्पता होने पर भी ‘माषतुष' (मूल पद मारुस मातुस) पद का चिन्तन करते-करते परमात्मा बने इत्यादि।
अतः शिक्षा-प्रबन्धन के लिए अनुप्रेक्षा के महत्त्व को स्वीकारना होगा। वस्तुतः, सिर्फ बौद्धिक कसरत करके अच्छे अंक से परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु विषय की सच्ची समझ (Right Perception) विकसित करना भी जरुरी है। इससे ही मानसिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास का द्वार उद्घाटित होगा। 3.7.4 यथार्थ बोध का क्रम
विषय की सच्ची अनुभूति के लिए शिक्षा (ज्ञान) प्राप्ति का उचित क्रम होना अत्यावश्यक है। शिक्षा-प्रबन्धन में इस क्रम का पालन करके ही शिक्षा को सार्थक बनाया जा सकता है। प्रश्न उठता है कि यह क्रम कैसा हो? जैनाचार्य हेमचंद्र ने सद्गृहस्थ को आठ प्रकार की बुद्धियों से युक्त होने का उपदेश दिया है। गृहस्थ यदि इन बुद्धियों से क्रमशः युक्त होकर शिक्षा अर्जन करे, तो वह विषय के मर्म को भलीभाँति समझ सकता है।102
165
अध्याय 3: शिक्षा-प्रबन्धन
51
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org