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2) किसी परिवार के आबालवृद्ध सभी सदस्य प्रतिदिन जल्दी उठकर सामुहिक सत्संग एवं भक्ति
करते हुए दिन का शुभारम्भ करते हैं। इस सिद्धान्त के दो पहलू हैं - ___i) उचित समय पर कार्य प्रारम्भ करना और
ii) उचित समय पर कार्य पूर्ण करना।
यदि हम कोई भी कार्य समय-सीमा में पूरा नहीं करते हैं, तो हमारे समक्ष दो विकल्प (Option) बचते हैं, जिनमें से एक हमें चुनना होता है -
i) पहले वाले कार्य को अधूरा छोड़ें और अगले निर्धारित कार्य को प्रारम्भ करें अथवा ___ii) नए कार्य को छोड़ें और उससे होने वाले लाभ से वंचित रहें।
तात्पर्य यह है कि समयोचित कार्यशैली के अभाव में व्यक्ति को नुकसान तो उठाना ही पड़ता है। अतः जिन्हें अपना जीवन सफल बनाना है, उन्हें उचित समयावधि में उचित कार्य कर लेना चाहिए, इसे ही समय-प्रबन्धन कहते हैं। (ख) न्यूनतम समय में अधिकतम लाभ प्राप्त करना (Maximum Profit in Minimum
Time)
वह प्रक्रिया, जिसके माध्यम से न्यूनतम समय में अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सके, समय-प्रबन्धन कहलाती है।
_ आचार्य कुन्दकुन्द इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं – 'अज्ञानी साधक बालतप के द्वारा लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म मन, वचन, काया को संयमित रखने वाला ज्ञानी साधक एक श्वासमात्र में खपा देता है। 45
सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है – “एक ही झपाटे में जैसे बाज बटेर को मार डालता है, वैसे ही मृत्यु भी आयु क्षीण होने पर जीवन को हर लेती है। ऐसे क्षणभंगुर जीवन का एक-एक क्षण कीमती है, अतः चिन्तनशील मानव यह प्रयत्न करता है कि इस अल्पकालीन, लेकिन अमूल्य जीवन में जीवन-यापन के साथ-साथ व्यक्तित्व निर्माण यानि आत्म-विकास भी हो सके। इस दोहरे लाभ की प्राप्ति हेतु कम से कम समय में अधिकतम कार्य करना समय-प्रबन्धन है। (ग) वर्तमान क्षण का सर्वोत्तम सदुपयोग करना (Optimum Utilization of Present
Moment) वर्तमान क्षण का सर्वोत्तम सदुपयोग करना भी समय-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार, 'जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण है, अतः उसे सफल
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अध्याय 4: समय-प्रबन्धन
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