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4.5 जैनआचारमीमांसा के आधार पर समय-प्रबन्धन
जैनआचारमीमांसा में समय-प्रबन्धन के दो पक्ष हैं - सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक। वस्तुतः, समय-प्रबन्धन के लिए केवल सैद्धान्तिक-पक्ष अथवा केवल प्रायोगिक-पक्ष ही पर्याप्त नहीं है, अपितु इनका समन्वय ही समय-प्रबन्धन की समग्रता का आधार है। कहा भी गया है - क्रियाविहीन ज्ञान अथवा ज्ञानविहीन क्रिया दोनों व्यर्थ हैं, परन्तु दोनों का संयोग हो जाने पर फल की प्राप्ति हो जाती है। यह तथ्य वैसा ही है, जैसे वन में आग लगने पर पंगु और अन्धा क्रमशः देखते हुए और दौड़ते हुए भी जल जाते हैं, किन्तु यदि ये दोनों मिल जाएँ, तो पारस्परिक सहयोग से गन्तव्य तक पहुँच जाते
4.5.1 समय-प्रबन्धन का सैद्धान्तिक पक्ष
जीवन में समय के सम्यक् प्रबन्धन के लिए जिन सिद्धान्तों की आवश्यकता है, वे इस प्रकार हैं - (1) समय-प्रबन्धन, आखिर क्यों?
____ भगवान् महावीर कहते हैं, 'तू महासमुद्र को तैर चुका है, अब किनारे आकर क्यों बैठ गया, उस पार पहुँचने की शीघ्रता कर। हे गौतम! क्षण भर के लिए भी प्रमाद उचित नहीं है। 35 कहने का आशय यही है कि मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ और अतिदुर्लभ है। ऐसे मानव-जीवन को पाकर भी इसके सीमित समय का सम्यक् उपयोग कर सुव्यवस्थित जीवनशैली और आत्मिक-शान्ति प्राप्त नहीं की, तो यह महासमुद्र को तैरकर किनारे पर डूब जाने जैसा है। अतएव प्रत्येक विवेकशील मानव को चाहिए कि वह ऐसी तकनीक खोजे, जिससे प्राप्त समय का सर्वोत्तम सदुपयोग हो जाए, यही समय-प्रबन्धन है। (2) समय-प्रबन्धन की अवधारणा
समय-प्रबन्धन दो शब्दों से मिलकर बना है – 'समय' और 'प्रबन्धन'। अतः कहा जा सकता है कि समय का सुव्यवस्थित रूप से उपयोग करने की प्रक्रिया ही ‘समय-प्रबन्धन' है। प्रश्न उठता है कि क्या समय अव्यवस्थित एवं अप्रबन्धित है। भगवान् महावीर कि दृष्टि में समय नहीं, अपितु व्यक्ति स्वयं अव्यवस्थित एवं अप्रबन्धित होता है। आचारांग में स्पष्ट कहा है – 'हे पुरूष! तू ही तेरा मित्र है, अतः तू स्वयं अपने आपको वश में कर। अन्यत्र भी कहा है कि स्वयं के साथ युद्ध करो, दूसरों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ?" स्टीफन कोवे (Stephen Covey) ने भी कहा है कि वस्तुतः समय-प्रबन्धन समय का प्रबन्धन नहीं हैं, बल्कि स्वयं का प्रबन्धन है। आशय स्पष्ट है कि सुधारना समय को नहीं, बल्कि स्वयं को है, अतः जीवन में समयानुकूल आचरण की प्रक्रिया ही समय-प्रबन्धन है। दूसरे शब्दों में, जिस समय का जो कार्य है, उसे उसी समय में सम्यक् रूप से पूर्ण करना समय-प्रबन्धन है।
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अध्याय 4 : समय-प्रबन्धन
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