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का लक्ष्य चारित्रिक-निर्माण है, न कि पूजा, प्रतिष्ठा, सम्मानादि। यदि कोई आगे भी बढ़ता है, तो उससे ईर्ष्या न करे, न ही प्रतिद्वंद्विता रखे, बल्कि उसके प्रति प्रमोद-भाव (उल्लास-भाव) रखे। यदि कोई उससे पिछड़ जाता है तो उसे तुच्छ न माने, उसके साथ दुर्व्यव्यहार न करे, बल्कि उसे अपेक्षित सहयोग देने का प्रयत्न करे।110 वह अपने आपको सामान्य अर्थात् सबके समान माने और मदरहित रहे।'' इस प्रकार, मदरहित शिक्षा प्राप्त करने वाला जीवन-प्रबन्धक शिक्षा के क्षेत्र में लगातार प्रगति करता जाता है। साथ ही मदवश सबसे अलग-थलग (Reserve) भी नहीं रहता हुआ, सामाजिक चेतना का उचित विवेक विकसित कर लेता है। यह शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन के लिए अत्यावश्यक है। 3.7.9 विनीत एवं अविनीत शिक्षार्थी के लक्षण
शिक्षार्थी के लिए आवश्यक है कि ज्ञानदाता गुरुजनों के प्रति उसका व्यवहार विनयपूर्ण हो। यदि शिक्षार्जन के समय ही आवश्यक विनम्रता का अभाव रहेगा, तो शिक्षा के द्वारा एक सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास कैसे हो सकेगा? अतः जीवन-प्रबन्धक किसी भी उम्र, जाति या पद का क्यों न हो, उसका कर्त्तव्य है कि वह गुरुजनों के प्रति मन, वचन एवं काया से विनीत व्यवहार करे। उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि में मुनि (शिष्य) को परिलक्षित करते हुए विनयोचित व्यवहार करने की शिक्षाएँ दी गई हैं। इनका प्रयोग शिक्षा-प्रबन्धन के अन्तर्गत सभी शिक्षार्थियों (गृहस्थ एवं साधु) को करना चाहिए, क्योंकि इन शिक्षाओं का सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन महत्त्व है।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में अनेक शिक्षक हो सकते हैं, जैसे - आध्यात्मिक शिक्षागुरु, व्यावहारिक शिक्षागुरु, माता-पिता, कुटुम्ब के ज्येष्ठ, मित्र-परिजन आदि। संक्षेप में इन सभी को 'गुरु' शब्द से सम्बोधित किया जा सकता है। एक जीवन-प्रबन्धक का अपने गुरु के प्रति कैसा व्यवहार हो और कैसा न हो, इसका निर्धारण निम्नलिखित उद्धरणों से किया जा सकता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में अविनीत शिष्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है112 – जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता है, गुरु के सान्निध्य में नहीं रहता है, गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है, अज्ञानी है (अतत्त्वज्ञ है), वह अविनीत कहलाता है। अविनीत शिक्षार्थी में चौदह प्रकार के दोष होते
हैं113 -
1) बारम्बार क्रोध करना 2) असम्बद्ध प्रलाप करना 3) क्रोध को लम्बे समय तक रखना 4) द्रोह करना 5) मित्रता को ठुकराना 6) अभिमान करना 7) ज्ञान का अहंकार करना
8) रस-लोलुप होना 9) भूल होने पर तिरस्कार करना 10) इंद्रियवश होना 11) मित्रों पर क्रोध करना 12) साथियों की सहायता न करना 13) प्रिय मित्रों की परोक्ष में शिकायत करना 14) दूसरों का अप्रिय करना
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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