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वर्तमान शिक्षाप्रणाली गलत नहीं, अपितु अपूर्ण है। इस अपूर्णता को दूर करने के लिए शिक्षा का सम्यक् उद्देश्य बनाना आवश्यक है। जैनदृष्टि के आधार पर देखें, तो व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा का उचित सामंजस्य करते हुए सर्वांगीण-शिक्षा प्राप्त करना ही शिक्षा का सम्यक् उद्देश्य होना चाहिए। इस पर भी आध्यात्मिक-शिक्षा को लौकिक-शिक्षा की तुलना में श्रेयस्कर मानना उचित हैं, क्योंकि जीवन का मूल उद्देश्य चरम आत्म-विशद्धि (मोक्ष) की प्राप्ति करना है। शिक्षा सार्थक तभी हो सकती है, जब इसमें सर्वांगीणता हो, अतः जीवन-प्रबन्धक को जीवन के विविध आयामों की समुचित शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। ये आयाम हैं - शारीरिक-विकास, सम्प्रेषणात्मक-विकास, बौद्धिक विकास, मानसिक-विकास, भावात्मक-विकास एवं आध्यात्मिक-विकास। इन षड्आयामों को लक्ष्य में रखकर शिक्षार्जन किया जाए, तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास सम्भव है।
___ शिक्षा-प्रबन्धन के सिद्धान्तों को जीवन-प्रयोग में लाने के लिए कतिपय विशेष बिन्दुओं को ध्यान में रखकर व्यक्ति को शिक्षार्जन करना चाहिए, जैसे - ग्रहणात्मक-शिक्षा (Theory) के साथ-साथ आसेवनात्मक-शिक्षा (Practical) का समन्वय करना, शिक्षा-प्राप्ति की प्रक्रिया में वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परावर्तना एवं धर्मकथा – इन पाँचों अंगों का समावेश करना, अनुप्रेक्षा के माध्यम से विषय की अनुभूति करना, शिक्षार्जन के समय शुश्रूषा (जिज्ञासा), श्रवण, ग्रहण, धारणा, विज्ञान, ऊह, अपोह एवं तत्त्वाभिनिवेश – इन आठ प्रकार की बुद्धियों से क्रमशः युक्त होकर ज्ञान प्राप्त करना, कथन का सम्यक् तात्पर्य समझने के लिए शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ , आगमार्थ एवं भावार्थ – इन पाँचों का उपयोग करना इत्यादि।
इस प्रकार, जीवन में सम्यक् शिक्षा द्वारा दुःखों से मुक्त होकर स्थायी सुख की प्राप्ति सम्भव है और यही जैनआचारमीमांसा पर आधारित शिक्षा-प्रबन्धन की सार्थकता है।
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अध्याय 3: शिक्षा-प्रबन्धन
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