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3.8 निष्कर्ष
मानवीय जीवन के प्रबन्धन का सर्वोत्तम साधन है – शिक्षा। यह मानव के विवेक को जाग्रत और समृद्ध कर उसे समस्त दुःखों से मुक्त करती है। शिक्षा के अभाव में विवेक नहीं होने से व्यक्ति की नकारात्मक-गत्यात्मकता (Negative Dynamicity) पर नियन्त्रण नहीं हो पाता। वस्तुतः, जीवन के बिना शिक्षा अस्तित्वविहीन होती है और शिक्षा के बिना जीवन व्यक्तित्वविहीन। शिक्षा का महत्त्व भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में भी रहेगा। प्राचीनकाल से ही श्रमण (जैन एवं बौद्ध) तथा वैदिक दोनों परम्पराओं में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों और संस्कृति-परिवर्तनों के प्रयासों के बाद भी शिक्षा का महत्त्व बना रहा। आधुनिक युग में तो शिक्षा का महत्त्व कम होने के बजाय शीर्ष तक पहुँच गया। फिर भी, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समय के प्रवाह में आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का ह्रास हुआ तथा भौतिक और स्वार्थपरक शिक्षा की वृद्धि हुई। इससे वर्तमान युग में व्याप्त असन्तुलित शिक्षा का वातावरण सुस्पष्ट होता है। इसमें सुधार करना ही शिक्षा-प्रबन्धन का ध्येय है।
वर्तमान युग में लोकोत्तर शिक्षा की उपेक्षा कर लौकिक-शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व दिया जा रहा है। परिणामस्वरूप शिक्षा-संस्थानों की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई है, पाठ्यसामग्रियों की उपलब्धता आसान हुई है, स्त्री-शिक्षा, विकलांग-शिक्षा, पिछड़े वर्गों की शिक्षा, अध्यापक-शिक्षा आदि पर जोर दिया जा रहा है, शिक्षा के राष्ट्रीय, प्रान्तीय और जिलास्तरीय अभिकरणों (Agencies) की वृद्धि हो रही है इत्यादि। यह सत्य है कि शिक्षा का महत्त्व निरन्तर बढ़ रहा है, फिर भी, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वर्तमान में शिक्षा के सही उद्देश्य का ही अभाव है और इसीलिए आज शिक्षा-प्रबन्धन की नितान्त आवश्यकता है।
वर्तमान युग में विद्यमान शिक्षाप्रणाली की अनेक विशेषताएँ हैं, जैसे - क्रमबद्ध शिक्षा की व्यवस्था, एकीकृत पाठ्यक्रम की व्यवस्था, शिक्षा संस्थान एवं शिक्षा-पद्धति के चयन की सुविधा, विविध विषयों की शिक्षा-प्राप्ति की व्यवस्था, बहुमाध्यम (Multimedia) वाली शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि। आधुनिक शिक्षाप्रणाली में जो सकारात्मक विशेषताएँ हैं, उनमें से अनेक तथ्य प्राचीन और विशेष रूप से जैन शिक्षाप्रणाली में आंशिक या पूर्ण रूप से दृष्टिगोचर होते हैं तथा शिक्षा-प्रबन्धन में इनकी प्रासंगिकता से इंकार भी नहीं किया जा सकता।
वर्तमान शिक्षाप्रणाली में विशेषताओं के साथ-साथ अनेक कमियाँ भी हैं। शिक्षाप्रणाली का प्रत्येक घटक, जैसे - शिक्षार्थी, अभिभावक, शिक्षक, शासन, समाज, प्रशासन और शिक्षण-पद्धति इन कमियों के लिए उत्तरदायी है। दुष्परिणाम यह है कि अथक प्रयास करने के बाद भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पा रहा है और इसीलिए प्रबन्धन–प्रक्रिया अपनाने की नितान्त आवश्यकता है, जिससे व्यक्ति शिक्षा रूपी नींव को मजबूत बना सके।
जैनआचारमीमांसा के आधार पर शिक्षा-प्रबन्धन करने के लिए सर्वप्रथम यह मानना होगा कि 62 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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