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उत्तराध्ययनसूत्र में विनीत शिष्य के बारे में कहा गया है14 – जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सान्निध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकार अर्थात् संकेत एवं मनोभावों को जानता है, वह विनीत होता है। विनीत शिक्षार्थी (शिष्य) के निम्नलिखित गुण होते हैं115 - 1) नम्र होना
9) भूल होने पर तिरस्कार नहीं करना 2) अचपल होना
10) मित्रों पर क्रोध न करना 3) छल-कपटरहित होना
11) वाक्कलह और हिंसादि नहीं करना 4) अकौतुहली होना
12) कुलीन होना 5) निन्दा न करना
13) लज्जाशील होना 6) क्रोध को दीर्घकाल तक न रखना
14) इंद्रिय-विषयों के प्रति अनासक्त होना 7) मित्रों के प्रति कृतज्ञ होना
15) अप्रिय मित्र के लिए भी कल्याण-कामना 8) ज्ञान का अहंकार न करना
करना श्रीमद्राजचंद्र ने आत्मार्थी शिष्य की सद्गुरु के प्रति विनम्रता एवं कृतज्ञता का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा है116 _
अहो! अहो! श्री सद्गुरु, करुणा सिंधु अपार । आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो अहो उपकार ।। शुं प्रभु चरण कने धरुं, आत्माथी सौ हीन। ते तो प्रभुए आपियो, वर्तु चरणाधीन।। आ देहादि आजथी, वर्तो प्रभु आधीन।
दास, दास हुं दास छु, तेह प्रभुनो दीन।। इस प्रकार, शिक्षा-प्रबन्धन के अन्तर्गत विनय का अर्थ व्यापक है, केवल तन को झुकाना ही विनय नहीं है, यह कार्य तो नृत्यांगना एवं नौकर भी कर लेते हैं।17
समवायांगसूत्र में गुरु के प्रति शिष्य की भूलों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है, इन्हें गुरु सम्बन्धी तैंतीस आशातना भी कहा जाता है। 18जीवन-प्रबन्धक को इन दोषों से बचते हुए निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए -
1) गुरुजनों के ठीक आगे चलना, बैठना या खड़ा नहीं होना। 2) गुरुजनों के दोनों तरफ बराबरी से चलना, बैठना या खड़ा नहीं होना। 3) गुरुजनों के ठीक पीछे अकड़कर चलना, बैठना या खड़ा नहीं होना। 4) साथ में रहते हुए भी गुरु से पूर्व क्रिया नहीं करना। 5) गुरु के बुलाने पर भी अनसुना नहीं करना या ‘क्या कह रहे हो?' इत्यादि अभद्र शब्दों का
प्रयोग नहीं करना।
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अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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