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6) मातृभक्ति, पितृभक्ति, गुरुभक्ति, धर्मभक्ति, देशभक्ति के कार्यों में उत्साहित रहना। 7) मानव ही नहीं, प्राणीमात्र के प्रति प्रेम , करूणा, सहयोग की भावना रखना इत्यादि।
इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ उच्चचारित्र का निर्माण करने में विशेष सहयोगी हो सकती हैं। ___शिक्षा का आरम्भ किस उम्र से करना चाहिए? यह भी विचारणीय है। आज तो दो-ढाई वर्ष की उम्र से ही बालक को विद्यालय भेजा जाता है, जो उचित प्रतीत नहीं होता। इससे बालक को अल्पवय में ही, जब उसका मस्तिष्क पूर्ण विकसित नहीं होता, विद्यालयीन शिक्षा का बोझ वहन करना पड़ता है। वह माता-पिता के द्वारा व्यक्तिगत ध्यान (Personal attention) देकर दिए जाने योग्य शिक्षण-प्रशिक्षण एवं प्रेम-स्नेह से भी वंचित रह जाता है। वह परिवार के आचार-विचार, रहन-सहन आदि से भी अपरिचित रह जाता है और उसकी परिवार के सदस्यों के साथ पूर्ण आत्मीयता भी नहीं बन पाती।
विद्यालय में सामूहिक शिक्षा व्यवस्था (Group Teaching System) होने से उसका प्रारम्भिक-विकास व्यक्तिगत ध्यान के अभाव में ढंग से नहीं हो पाता। वह बौद्धिक विकास में तो आगे बढ़ जाता है, लेकिन नैतिक एवं भावात्मक विकास में कमजोर रह जाता है। इस प्रकार, प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप अपने बालकों का अध्ययन आरम्भ करने की उम्र को विवेकपूर्वक सुनिश्चित करे।
इस प्रकार, शिक्षा-प्राप्ति को लेकर जैनाचार्यों द्वारा दिए निर्देशों में से कई बिन्दु जीवन-व्यवहार में अपनाए जा सकते हैं। इनसे व्यक्तित्व के सन्तुलित एवं सर्वांगीण विकास की प्राप्ति में उचित सहयोग मिल सकता है। 3.7.8 शिक्षा में अभिमान, सबसे बड़ी बाधा
आज विद्या से विनय की प्राप्ति दुर्लभ हो गई है, प्रायः हर शिक्षित व्यक्ति में अहंकार (Ego) की मात्रा बढ़ती जा रही है। इससे ही पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माँ-बेटी आदि के पारिवारिक सम्बन्धों का विघटन हो रहा है। शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन के लिए यह एक चुनौती है।
___ जैनाचार्यों ने बहुत पहले ही आठ प्रकार के मदों (अभिमान) की व्याख्या की है – 1) ज्ञान, 2) तप, 3) कुल, 4) जाति, 5) रूप, 6) बल, 7) ऐश्वर्य एवं 8) लाभ। 108 इनमें से सबसे बड़ा मद है - ज्ञान का मद। किसी ने कहा है – सब मदों का निवारण ज्ञान के द्वारा हो सकता है, किन्तु यदि ज्ञान का ही मद हो जाए, तो उसका निवारण कौन कर सकता है? कोई नहीं। 109 वस्तुतः जो अभिमानी होता है, वह अज्ञानी ही होता है, उसे स्वयं को ज्ञानी मानने की भूल कदापि नहीं करनी चाहिए।
शिक्षा-प्रबन्धन में जैनाचार्यों के उपर्युक्त निर्देश का विशेष महत्त्व है। जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह योग्य शिक्षा तो प्राप्त करे, लेकिन उसका मद न करे। वह सदैव ध्यान रखे कि उसकी शिक्षा 169
अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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