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इस प्रकार, आज अध्यापकों की इस तुच्छ और स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण विद्यार्थियों का अमूल्य समय और धन नष्ट हो रहा है। यह आसानी से सोचा जा सकता है कि यदि कोई अध्यापक 50 छात्रों वाली कक्षा में प्रतिदिन सिर्फ 5 मिनट भी प्रमाद करता है, तो 200 पिरीयड के वार्षिक सत्र में वह सब छात्रों के मिलाकर 50,000 मिनट नष्ट करता है। 3.5.4 समाज की विसंगतियाँ
प्रत्येक शिक्षार्थी को समाजसापेक्ष ही जीना होता है। एक ओर उसे समाज से सहयोग लेना होता है, तो दूसरी ओर समाज में सेवा देनी होती है। वस्तुतः, शिक्षार्थी और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। शिक्षार्थी का व्यक्तित्व समाज को प्रभावित करता है और समाज का व्यवहार शिक्षार्थी को। आज विडम्बना यह है कि समाज का व्यवहार शिक्षार्थी और शिक्षा के लिए व्यक्तित्व विकास का साधक बनने की अपेक्षा बाधक बन रहा है। इससे शिक्षार्थी को जो प्रेरणा और प्रोत्साहन अपेक्षित है, वह उसमें खरा नहीं उतर रहा है। समाज की मुख्य विसंगतियाँ निम्नलिखित हैं, जिनका सामना एक शिक्षार्थी को करना पड़ रहा है - (1) समाज में व्याप्त असदाचार और अनैतिकता - समाज में प्रायः असदाचार और अनैतिकता का ही बोलबाला है। समाज में इन बुराइयों का आधिपत्य होने से सामान्य शिक्षार्थी अपनी नैतिकता और सुसंस्कारों को खो बैठता है और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का पतन हो जाता है। (2) समाज में सांप्रदायिक विद्वेष – समाज में धर्म-संप्रदायों के माध्यम से नैतिक और आध्यात्मिक आदर्श की सत्प्रेरणा प्राप्त हो सकती है, लेकिन समाज में ही कई अज्ञ और अन्धविश्वासी लोगों ने सांप्रदायिक कट्टरता और आडम्बरों से धर्म की छवि को बिगाड़ रखा है। इसी कारण से, शिक्षार्थी जब धर्म से जुड़ता है, तो कभी स्वयं सांप्रदायिक वैमनस्य और कट्टरता को स्वीकार कर लेता है और कभी धर्म को गलत मानकर धर्म से विमुख हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में वह नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के अवसर को गँवा देता है। जैन-परम्परा में हमें सामाजिक सद्भावना का आदर्श रूप मिलता है। यहाँ आचार्यादि को वाचना लेने-देने हेतु अन्य गणों में जाने की स्वतन्त्रता दी गई है, जिसका विशेष वर्णन समवायांगसूत्र, छेदसूत्र आदि जैनग्रन्थों में मिलता है। (3) स्वावलम्बन व्यवस्था का अभाव – समाज में शिक्षित व्यक्तियों को स्वावलम्बी बनाने के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। आज भी लाखों नवयुवक बेरोजगार घूम रहे हैं, जो अन्ततः निराशा, कुण्ठा, रोष अथवा आपराधिक मनोवृत्तियों से ग्रस्त हो जाते हैं। इनमें से कई लोग कालक्रम में समाज के लिए भारभूत हो जाते हैं। (4) प्रोत्साहन और प्रेरणा का अभाव – समाज में शिक्षार्थी को प्रोत्साहन और प्रेरणा देने के लिए कोई सुदृढ़ व्यवस्था नहीं है। समाज के सदस्य सामान्यतया स्वहित की संकुचित भावनाओं से ग्रस्त रहते हैं। वह प्राचीन संस्कृति समाप्त हो गई, जिसमें शिक्षक और शिक्षार्थी के भोजन, वस्त्र आदि 143
अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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