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46) पुष्पग्रन्थन 47) वक्रोक्ति
48) काव्यशक्ति
49) स्फारविधिवेश
50) सर्वभाषा विशेष
51) अभिधान ज्ञान
52) भूषण - परिधान
53) भूत्योपचार
54) गृहोपचार
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55) व्याकरण
56) परनिराकरण
57 ) रन्धन
58) केशबन्धन
59) वीणानाद
पण्डित हीरालाल जैन के अनुसार, 'जैनधर्म में गृहस्थधर्म की उन सभी प्रवृत्तियों को यथोचित स्थान दिया गया है, जिनके द्वारा मनुष्य सभ्य एवं शिष्ट बनकर अपनी व अपने कुटुम्ब की तथा समाज एवं देश की सेवा करता हुआ उन्नत बन सके। 75 जैनकथानक में भगवान् महावीर के बालजीवन का वर्णन मिलता है, जिसमें यह बताया गया है कि आठ वर्ष की उम्र होने पर उनके माता-पिता ने शिक्षा-प्राप्ति के लिए उन्हें एक अध्यापक के पास भेजा था। 7" अन्यत्र भी प्रसंग मिलता है कि राजा प्रजापाल ने अपनी पुत्री सुरसुन्दरी एवं मयणासुन्दरी को लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा के लिए योग्य शिक्षकों के पास भेजा था, अस्तु । "
इसी तरह वर्त्तमान परिवेश में भी शिक्षा - प्रबन्धन के लिए 'लौकिक शिक्षा' का जीवन में समावेश करना अत्यावश्यक है, जिससे विद्यार्थी के व्यक्तित्व की योग्यताओं का उपयुक्त विकास हो सके। इस बात की पुष्टि उपर्युक्त जैन - उद्धरणों से भी होती है। आज जो गुणनिष्पन्न डॉक्टर, अभियन्ता, वकील, एम.बी.ए., सी.ए. आदि बन रहे हैं, यह उत्तम लौकिक शिक्षा का ही परिणाम है। 78 लौकिक शिक्षा से जीवन-व्यवहार में जो कुशलता एवं सामाजिकता दृष्टिगत होती है, उससे लौकिक शिक्षा का महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है । अतः शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन के अन्तर्गत उचित लौकिक शिक्षा प्राप्त करना एक अनिवार्य पहलू है, किन्तु आध्यात्मिक या व्यक्तित्व विकास की शिक्षा की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए । (2) आध्यात्मिक शिक्षा (लोकोत्तर शिक्षा )
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60) वितण्डावाद
61) अंकविचार
62) लोक - व्यवहार
63) अंत्याक्षरिका
64) प्रश्नप्रहेलिकादि
जीवन और अध्यात्म का गहरा सम्बन्ध है । जिस प्रकार रोटी, कपड़ा एवं मकान जीवन की बुनियादी आवश्यकता है, उसी प्रकार मानसिक शान्ति, प्रसन्नता आदि भी जीवन के अनिवार्य तत्त्व हैं। इनकी पूर्ति के लिए आध्यात्मिक शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है।
जैनकथासाहित्य में आर्यरक्षितसूरि का प्रसंग दर्शाया गया है। वे गृहस्थावस्था में परदेश से विशेष अध्ययन करके अपने गृहनगर दशपुर लौटे, प्रजासहित राजा भी उनकी अगवानी करने आया और हाथी पर बिठाकर विशेष महोत्सवपूर्वक उन्हें घर तक पहुँचाया। उन्होंने आकर माताजी के चरणों में नमस्कार किया, किन्तु माता को हर्ष नहीं हुआ। जब पुत्र ने हर्षित न होने का कारण पूछा, तब
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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