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परन्तु शरीर निरोगी तभी रह सकता है, जब उसके प्रति लापरवाही न हो। अतः शिक्षा के द्वारा जीवन-प्रबन्धक को ऐसी शैली अपनानी चाहिए, जिससे उसका उचित शारीरिक विकास हो सके। शारीरिक विकास के लिए जीवन-प्रबन्धक को स्वास्थ्य-चेतना को जाग्रत कराने वाली शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है, इससे वह शरीर रूपी तन्त्र को स्वस्थ रखकर सम्यक् दिशा में इसका प्रयोग कर सके। इस हेतु जैनआचारशास्त्र उचित दिग्दर्शन देते हैं। इसकी विस्तृत चर्चा पाँचवें अध्याय में की जाएगी। (2) संप्रेषणात्मक विकास (Communication Skills Development) – वाणी व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण घटक है। मनुष्य का अधिकांश सामाजिक-व्यवहार वाणी के माध्यम से होता है, अतः वाणी-व्यवहार को संयमित करने सम्बन्धी शिक्षा भी जीवन-प्रबन्धक के लिए आवश्यक है। जैनआचारशास्त्रों में संप्रेषणात्मक विकास अर्थात् सम्यक् वाणी व्यवहार से सम्बन्धित अनेक निर्देश दिए गए हैं, जैसे - व्यक्ति को कैसे, कहाँ, कब एवं कितना बोलना चाहिए और बोलते समय किन शब्दों का प्रयोग करना चाहिए इत्यादि। इसकी विस्तृत चर्चा छठे अध्याय में की जाएगी। (3) बौद्धिक विकास (Intellectual Development) – व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण घटक है - बुद्धि (मतिज्ञान)। यह व्यक्ति का ज्ञानात्मक पक्ष है। बौद्धिक विकास का तात्पर्य बद्धिगत ज्ञान के विकास से है। अंतरंग एवं बहिरंग विषयों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वानों अथवा पुस्तकों के द्वारा कथित ज्ञान को जानना, स्मरण करना एवं धारण करना बौद्धिक ज्ञान है। इसके सम्यक् विकास के लिए व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के अनेक संस्थान (Institutes), पुस्तकें एवं शिक्षकादि उपलब्ध हैं, जिनका सहयोग लिया जा सकता है। (4) मानसिक विकास Mental Development) - व्यक्तित्व निर्माण का एक अनिवार्य घटक है – मानसिक विकास। बौद्धिक ज्ञान अपने आप में तब तक अपर्याप्त होता है, जब तक कि उस पर उचित चिन्तन–मनन एवं निर्णय नहीं किया जाता है। जैन शिक्षा-पद्धति में 'अनुप्रेक्षा' को शिक्षा का एक अंग बताया गया है, जिसका अर्थ ही है - किसी विषय का बारम्बार चिन्तन करना। अतः अनुप्रेक्षा के द्वारा मानसिक विकास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जैन कर्मशास्त्र, मार्गणा-सिद्धान्त, न्याय-सिद्धान्त आदि का अध्ययन भी मानसिक विकास के लिए उपयोगी हैं। मानसिक विकास को ही आधुनिक मनोविज्ञान में Intellectual Quotient (I.Q.) Development कहा जाता है। वैज्ञानिकों, विचारकों आदि में मानसिक विकास की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है।
मानसिक विकास का व्यापक अभिप्राय मन की योग्यताओं के सकारात्मक विकास से है, जिससे मनोबल, एकाग्रता, सहजता, संकल्पशक्ति आदि का विकास हो, विपरीत परिस्थितियों में भी तनाव, अवसाद न हो, समय पर ज्ञान की जागृति हो इत्यादि।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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