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1) कलाचार्य 2) शिल्पाचार्य
3) धर्माचार्य कलाचार्य का कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, नृत्य आदि उनके मुख्य विषय थे। शिल्पाचार्य जीविकोपार्जन के लिए व्यावसायिक शिक्षा देते थे, जिसमें विविध प्रकार के शिल्पों का ज्ञान समाहित होता था। आध्यात्मिक शिक्षा की प्राप्ति के लिए जैन-परम्परा में धर्माचार्य की व्यवस्था थी। उनका कार्य व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का विकास करना था। वे शील
और सदाचार की शिक्षा देते थे। वर्तमान परिवेश में भी विविध कला और शिल्प शिक्षा के लिए अनेक कॉलेज एवं कोचिंग इंस्टिट्यूट्स उपलब्ध हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति हेतु साधु-साध्वी, विद्वान् , पण्डित आदि उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग कर व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है। (1) व्यावहारिक शिक्षा (लौकिक शिक्षा)
जैन-परम्परा में जीवन-प्रबन्धक को आवश्यकतानुसार व्यावहारिक शिक्षा लेने का निर्देश दिया गया है। यद्यपि जैन विचारधारा आध्यात्मिक उन्नति को ही जीवन का मूल विकास मानती है, तथापि इसमें जीविकोपार्जन की योग्यता विकसित करने की व्यवस्था भी है। जैनधर्म के आदिप्रवर्तक ऋषभदेवजी ने स्वयं गृहस्थावस्था में लौकिक शिक्षा पद्धति की स्थापना की थी। उन्होंने अपनी पुत्रियों को लिपि और गणित की शिक्षाएँ दी तथा पुरूषों के लिए बहत्तर एवं महिलाओं के लिए चौसठ कलाओं का अध्ययन भी प्रारम्भ किया था।
तालिका 01 – पुरूषों की बहत्तर कलाएँ 1) लेखकला 13) अष्टापदकला 25) मधुसिक्थ 2) गणितकला 14) दकमृत्तिकाकला 26) आभरणविधि 3) रूपकला
15) अन्नविधिकला 27) तरुणीप्रतिकर्म 4) नाट्यकला 16) पानविधिकला 28) स्त्रीलक्षण 5) गीतकला 17) वस्त्रविधिकला 29) पुरूषलक्षण 6) वाद्यकला 18) सदनविधि
30) हयलक्षण 7) स्वरगतकला 19) आर्याविधि
31) गजलक्षण 8) पुष्करगतकला 20) प्रहेलिका
32) गोलक्षण 9) समतालकला 21) मागधिका
33) कुक्कुटलक्षण 10) द्यूतकला 22) गाथाकला
34) मेढलक्षण 11) जनवादकला 23) श्लोककला 35) चक्रलक्षण 12) आशुकविकला 24) गन्धयुतिकला 36) छत्रलक्षण
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व ।
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