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3.6 जैनआचारमीमांसा के आधार पर शिक्षा प्रबन्धन
शिक्षा के क्षेत्र में अनेकानेक समस्याएँ दिखाई दे रही हैं तथा इनके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। ये समस्याएँ सिर्फ भारतीय ही नहीं, अपितु विश्वस्तर पर व्याप्त हो चुकी हैं। इनके बारे में कई शिक्षाविद् चिन्तन-मनन करते रहते हैं एवं समय-समय पर अपने सुझाव देते रहते हैं। अनेक विद्वानों का कहना है कि वर्तमान में प्रचलित शिक्षाप्रणाली ही गलत है, इसे बदलना चाहिए। वे शिक्षाप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की बात कहते हैं, किन्तु जैन–अनेकान्तदृष्टि के अनुसार, आज की शिक्षाप्रणाली गलत नहीं, अपितु अपूर्ण व अपर्याप्त है। इस प्रणाली में जो असन्तुलन आ गया है, उसे सन्तुलित करने की आवश्यकता है। इस प्रकार अपूर्णता को दूर करने का प्रयत्न करना शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन की दिशा है।
आगे, जैनआचारमीमांसा पर आधारित शिक्षा प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्षों की चर्चा की जा रही है - 3.6.1 शिक्षा का उद्देश्य (Object of Education)
शिक्षा-प्रबन्धन के लिए सर्वप्रथम यह निर्णय करना जरुरी है कि शिक्षा की आवश्यकता क्यों है? जब तक शिक्षा-प्राप्ति का सही लक्ष्य निर्धारित नहीं होगा, तब तक जीवन के सही विकास की दिशा भी नहीं मिलेगी एवं इस प्रकार 15-20 वर्ष या अधिक पढ़ने के बावजूद भी उसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। अतः सिर्फ युग के प्रवाह में बहकर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना कोई समझदारी या सकारात्मक सोच नहीं है। शिक्षा की आवश्यकता सम्बन्धी प्रश्न का सम्यक निराकरण करके शिक्षा के उद्देश्य का सही निर्धारण करना चाहिए।
शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। यद्यपि यह लक्ष्य ही शिक्षा-जगत् में सर्वमान्य है,65 फिर भी सर्वांगीण विकास का मानदण्ड सबका अलग-अलग है। जिसका जैसा जीवन-दर्शन है, वैसी ही उसकी सर्वांगीण विकास की अवधारणा है और उसके अनुसार ही वह शिक्षा की प्राप्ति कर रहा है। यही कारण है कि कोई रोजगार, कोई डिग्री और कोई विवाह आदि के लिए शिक्षा प्राप्त कर रहा है, जिसे हमने पूर्व प्रकरण में विस्तार से देखा है। इससे भी ऊपर उठकर देखें तो आज व्यक्ति भौतिकवादी जीवन-दर्शन से प्रभावित होकर केवल अर्थ एवं काम-भोग की ही शिक्षा प्राप्त कर रहा है और वह इस अर्थ एवं भोगमूलक शिक्षा को ही व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का आधार मान रहा है, जो एक भयावह भूल है।
जैन-विचारकों की दृष्टि में सच्ची शिक्षा वह है, जिससे अंतरंग एवं बहिरंग, दोनों प्रकार के जीवन का सन्तुलित विकास हो। दूसरे शब्दों में, शिक्षा ऐसी हो, जिसमें सभी मानवीय जीवन-मूल्यों का सम्यक् विकास हो। वह जीवन के दुर्बल पक्षों का परिहार करे एवं सबल पक्षों का संवर्द्धन करे। धीरे-धीरे वह हमें आत्मतोष और आत्मशान्ति की ओर ले जाए। वह शिक्षा दुःखों से, राग-द्वेष से,
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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