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अहंकार, आसक्ति एवं तृष्णा से, मोह से तथा अज्ञान
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मुक्ति की उद्घोषिका बने । ऋषिभाषित में कहा गया है कि विद्या वही है, जो व्यक्ति को सभी दुःखों से मुक्त कर सके । इस प्रकार जैन विचारकों का शिक्षा के प्रति एक समग्र, सन्तुलित एवं समन्वित दृष्टिकोण रहा है। इनके अनुसार, जो जीवन-निर्वाह के साथ-साथ जीवन-निर्माण में भी सहयोगी बने, वही सम्यक् शिक्षा है। शिक्षा - प्रबन्धन के लिए इसी शिक्षा को सर्वांगीण व्यक्तित्व - विकास की शिक्षा माननी चाहिए ।
आचार्य तुलसीजी ने सम्यक् सर्वांगीण शिक्षा के द्वारा एक अच्छे नागरिक में निम्न योग्यताओं का होना आवश्यक बताया है 9
★ बौद्धिक एवं भावात्मक विकास का सन्तुलन ।
★ विवेक एवं संवेग में सामंजस्य ।
★ वैयक्तिकता एवं सामाजिकता में सामंजस्य ।
★ नैतिक मूल्यों का विकास।
★ आत्मानुशासन की क्षमता का विकास ।
★ मानवीय समस्या के प्रति संवेदनशीलता का विकास ।
जीवन-प्रबन्धन का लक्ष्य परिस्थितिओं को पूर्णतः बदलना नहीं, अपितु प्राप्त परिस्थिति में उचित समाधान निकालना है। अतः शिक्षा - प्रबन्धन के लिए वर्त्तमान में प्रचलित शिक्षाप्रणाली में सुधार की अपेक्षा स्वीकार करते हुए भी हमें उपलब्ध शिक्षा-व्यवस्था में अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं शिक्षा - साधनों को जुटाकर उचित शिक्षा - प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।
3.6.2 सर्वांगीण शिक्षा के प्रकार
जैनाचार्यों ने जीवन के बहिरंग एवं अंतरंग विकास के लिए शिक्षा के क्रमशः दो विभाग किए
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(1) व्यावहारिक शिक्षा व्यावहारिक शिक्षा वह है, जो व्यक्ति के जीवन-यापन से सम्बन्धित होती है और जीवन की शारीरिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है।
(2) आध्यात्मिक शिक्षा आध्यात्मिक शिक्षा वह है, जो व्यक्ति के जीवन-निर्माण अर्थात् आध्यात्मिक - विकास से सम्बन्धित होती है और मानसिक शान्ति, स्थिरता, एकाग्रता, प्रसन्नता, आनन्द आदि की पूर्ति में सहायक होती है।
शिक्षा-प्रबन्धन के लिए हमें इन दोनों शिक्षाओं का जीवन में सम्यक् समन्वय करना होगा । रायपसेणीसुत्त में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है, जो इन शिक्षाओं को प्रदान करते
थे।
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अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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